बुधवार, 27 जुलाई 2022

मैं अपना प्यार for Kindle

 

अपना प्यार

मैं दिल्ली में छोड़ आया

 

एक थाई नौजवान की ३० दिन की डायरी जो विदेश में बुरी तरह प्‍यार में पागल था


    


 

     


लेखक

धीराविट पी० नात्थागार्न

हिन्‍दी अनुवाद

आ. चारूमति रामदास




 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

अपना प्‍यार मैं दिल्‍ली में छोड़ आया

लेखकः धीराविट पी० नात्‍थागार्न 

अनुवादः आ. चारूमति रामदास

 

सर्वाधिकार सुरक्षित। इस पुस्‍तक का कोई भी भाग किसी भी रूप में प्रकाशक की अनुमति के बिना पुनर्निर्मित, संकलित अथवा प्रेषित न किया जाये। 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

आभार

 

मैं अपने सर्वोत्‍तम अमेरिकन मित्र कलिफ स्‍लोन को धन्‍यवाद देता हुँ जिन्होंने अंग्रेज़ी में लिखी मूल पांडुलिपि को सुधारने में सहायता की।

मैं आभारी हूँ आ. चारुमति रामदास का जिन्होंने मेरी रचना का हिन्दी अनुवाद किया.

मैं प्रीतम कुमार का आभारी हूँ जिन्होंने हिन्दी अनुवाद का बड़ी योग्यता से कम्प्यूटरीकरण किया। 

इस डायरी में लिखे सभी नाम और उपनाम वास्‍तविक हैं, परन्‍तु उनके नामों, उपनामों, सम्‍मानवाचक शब्‍दों, को हटा दिया गया है जिससे वेआमहो जाएँ। 

मैं उन सभी का क्षमाप्रार्थी हूँ जिनके नाम इस डायरी में प्रयुक्‍त हुए हैं; मैं सिर्फ घटनाओं और स्‍थलों को ताजा और सजीव रखना चाहता हूँ और मैं इस रचना को समर्पित करता हूँ दिल्‍ली के अपने सभी मित्रों और शिक्षकों कों। 






 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

मेरी सर्वाधिक प्रिय कविता

अगर मेरे बस में होता,

तो मैं जीवन का हर दिन खुशियों से 

भर देता। 

मैं किसी को आहत न करता

किसी को नाराज न करता;

हर कष्‍ट को कम करता,

और कृतज्ञता की शुभाशीषों का आनन्‍द उठाता। 

अपना दोस्‍त बुद्धिमानों से चुनता 

और पत्‍नी सदाचारियों में से;

और इसलिये धोखे और निष्‍ठुरता के

खतरे से बचा रहता।

(सैम्‍युअल जॉन्‍सनः रास्‍सेलास)










 

*Verba dat onmis amor reperitque alimenta morando (Latin): प्‍यार प्रदान करता है शब्‍द और निर्वाह करता है विलम्‍ब पर। 

पहला दिन

जनवरी ११,१९८२

 

अब तक तो TG ९३५ पालम एअरपोर्ट (अब इंदिरा गांधी अन्‍तर्राष्‍ट्रीय एअरपोर्ट) से उड़ान भर चुकी होगी, बैंकाक के लिये – तुम्‍हारे गंतव्‍य की ओर। 

हमने प्रातः १.३० मिनट पर एक दूसरे से बिदा ली, यही वो आखिरी पल था जो हमने साथ बिताया। तुम चली गई – मुझे ठिठुरते एकान्‍त और नीली तनहाई में छोड़कर। मेरी जिन्‍दगी, दुख होता है कहने में, फिर से दुःखों के गहरे समन्‍दर में लौट आई है। जिन्‍दगी कितनी क्रूर है। मैं तुम्‍हें फिर से कब देखूंगा?

अब तुम थाईलैण्‍ड में हो, मगर मैं अभी भी भारत में हूँ, विभिन्‍नताओं और विरोधाभासों की धरती पर हमारे जिस्‍म एक दूसरे से जुदा हैं मगर मुझे उम्‍मीद है कि हमारे दिल एक ही हैं। यह सोचकर मैं परेशान हो जाता हूँ कि क्‍या तुम अब भी मुझसे प्‍यार करती हो और तुम्‍हें मेरी जरूरत है। जीवन का सत्‍य तो यह है कि एक न एक दिन हमें जुदा होना ही है। अपने से दूर जाते हुए तुम्‍हें मैं न रोक सकूंगा। तुमतुमहो और मैंमैंहूँ। असल में हम दो अलग-अलग व्‍यक्तित्‍व हैं और प्रकृति के नियमों से शासित है। थाईलैण्‍ड पहुँचने पर भगवान तुम पर कृपा करे।

मगर याद रखना, मेरी प्‍यारी, कि तुम चाहे जो भी करो, और जहाँ भी जाओ मेरे खून और मेरी रूह में तुम हमेशा रहोगी। स्‍थल और समय हमें जुदा तो कर सकते हैं, मगर मेरे वफ़ादार दिल में तुम हमेशा रहोगी। और मैं तुमसे वादा करता हूँ जिन्‍दगी भर के लिये प्रेम और स्‍नेह का।












 

 

*Homo totiens moritur quotiens amittil suos (Latin): जब तुम अपने प्रिय व्‍यक्ति को खो देते हो, तो तुम्‍हारा कुछ हिस्‍सा मर जाता है – प्‍यूबिलियस साइरस (fl.1st Century BC)

दूसरा दिन

जनवरी १२,१९८२

 

आज पहला दिन है तुम्‍हारे बगैर इस तेजी से बदलती जिन्‍दगी की वास्‍तविकताओं का सामना करने का। ये न तो अन्‍त का आरंभ है और न ही आरंभ का अन्‍त। ये बिल्‍कुल विपरीत है – आरंभ का आरंभ। हमारी जिन्‍दगियों के क्षितिज आगे चलकर हमें एक दूसरे के निकट ले आएंगे, उम्‍मीद करता हूँ।

सुबह मैं देर से उठा, रात भर डरावने सपने देखने से सिर भारी था।मेसमें नाश्‍ते के लिये कुछ नहीं बचा था क्‍योंकि मैं खूब देरी से उठा था। मैंने होस्‍टल में महीने की फीस के १९९ रू० भर दिये, और इसके बाद ‍सेन्‍ट्रल लाइब्रेरी की ओर चल पड़ा अपनी अच्‍छी दोस्‍त किरण को किताब लौटाने, जिसकी ड्यू-डेट कब की निकल चुकी थी। कोई फ़ाईन नहीं लगा। बड़ी मेहेरबानी की उसने! मैंने उससेबाय!कहा कृतज्ञता की गहरी भावना से, फिर मैं लाइब्रेरी साइन्‍स डिपार्टमेन्‍ट गया।

वहाँ, संयोगवश, लिंग्‍विस्‍टिक्‍स की पुरानी सह-छात्रा से मिला जो आजकल अच्‍छी नौकरी की संभावना के लिये लाइब्रेरी साइन्‍स के कुछ कोर्स कर रही है। वह बड़े अच्‍छे स्‍वभाव की है, उसने एक पल रूककर मुझसे बात की। मैं मि० बासित का इंतजार कर रहा था। अपनी क्‍लास खत्‍म करने के बाद वे अपने कमरे में आए। मैंने दरवाजा खटखटाया और अन्‍दर आने की इजाज़त मांगी।

उन्‍होंने मुस्‍कुरा कर मुझसे बैठने के लिए कहा। मैंने उन्‍हें अपने आने का मकसद बताया और तुम्‍हारा पत्र तथा तुम्‍हारी थीसिस का तीसरा चैप्‍टर दे दिया। उन्‍होंने पत्र पर नज़र दौड़ाई और मुझसे मेरा पता पूछा जिससे वह मुझसे संपर्क कर सकें। थोड़ी सी भूख लगी थी, मैंने एक कप कॉफी पी स्‍नैक्‍स के साथ यूनिवर्सिटी कैन्‍टीन में। 

पी०जी० मेन्‍स होस्‍टल में वापस लौटते हुए मैं जुबिली एकस्‍टेन्‍शन हॉल में गया यह देखने के लिये कि आराम वहाँ है या नहीं। वह बाहर गया था, मुझसे किसी ने कहा कि वह आज ही शाम को भिक्षु-जीवन छोड़ रहा है। किसी महिला की आवाज़ सुनकर मैं खयालों से बाहर आया – ये शुक्ला थी, मेरी कनिष्‍ठ-छात्रा लिंग्‍विस्‍टिक्‍स की – हम कुछ देर बातें करते रहें। शाम को वुथिपोंग मातमी चेहरा लिये मेरे कमरे में आया। उसने अपने एक-तरफ़ा प्‍यार के बारे में दिल खोल कर रख दिया। मुझे उसके बारे में बहुत दुख हो रहा था,  मैंने उसे कुछ सुझाव दिये मगर उसे वे ठीक नहीं लगे। इसलिए मैंने अपनी ओर से उसका हौसला बढ़ाने की पूरी कोशिश की, और वह संतुष्‍ट होकर मेरे कमरे से गया। उसे एक बार फिर दुनिया जीने के लायक लगने लगी; मैं खुश था कि मैं उसके कुछ तो काम आ सका।

जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं अभी भी अनिश्चितता की दुनिया में हूँ। मेरी जिन्‍दगी का रास्‍ता कई सारे संयोगों और परिस्थि‍तियों पर निर्भर करता है। जिन्‍दगी ऐसी ही होती है! इन्‍सान को हर क्षण सम्‍पूर्णता से जीना चाहिए। क्‍या सभी इस तथ्‍य को जानते और स्‍वीकार करते है











 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Cum ames non sepias aut cum sepias non ames (Latin): जब तुम प्‍यार करते हो तो सोच नहीं सकते, और जब तुम सोचते हो तो तुम प्‍यार नहीं कर सकते। प्‍यूबिलियस साइरस (fl.1st Century BC)

तीसरा दिन

जनवरी १३,१९८२

 

तुम्‍हारे बगैर जिन्‍दगी जीने लायक ही नहीं है। तुम वहाँ थाईलैण्‍ड में क्‍या कर रही हो? मेरा दिमाग इतना भरा हुआ है कि मैं किसी भी चीज पर ध्‍यान नहीं दे सकता।

कल रात को मेरठ से दो थाई दोस्‍त मेरी दिनचर्या में खलल डालने आ गए। उनकी सहूलियत के लिये सोम्‍मार्ट सामरोंग के कमरे में सोने चला गया। मैं सुबह के तीन बजे तक कमरे में ही रहा, मगर आँख ही नहीं लगी, इसलिये मैं नीचे अतिथि-लाऊन्ज में सोने के लिये आ गया। वहाँ मुझे बड़ी गहरी नींद आई-मगर सिर्फ चार घंटे। चौकीदार ने आठ बजे मेरा मीठा सपना तोड़ दिया। जैसे ही मैंने बेकार का नाश्‍ता किया मैं वैसे ही, आधी नींद में अपने कमरे में चला गया ताकि कुछ देर और सो सकूँ। मैं बारह बजे खाना खाने के लिये उठा। इसके बाद करीब-करीब पूरा दिन मैं उन दोस्‍तों में ही व्‍यस्‍त रहा। यह व्‍यर्थ है, क्‍योंकि मेरा ज्‍यादातर समय छोटी-छोटी बातों में ही खर्च हो गया। तुमने अपनी जो थीसिस मि० कश्‍यप के लिये छोटी थी उसका मैं कुछ भी न कर सका; वह अभी भी मेरे पास है। मि० अग्रवाल वाला खत भी अभी तक मेरी स्‍टडी-टेबल पर पड़ा है। ये वाकई में समय की बरबादी है।        

शाम को चू और ओने अपने चम्‍मच माँगने आए जो उन्‍होंने उस दिन मेरे कमरे में छोड़ दिये थे जब हमने साथ में लंच किया था। वे आए तो मैं नहाने ही जा रहा था। इसके कुछ ही मिनट बाद मुकुल कमरे में आया, हमने कुछ देर बातें कीं और होस्टेल के कैन्‍टीन में स्‍नैक्‍स के लिए चले गए। यह था मेरे बर्बाद-दिन का अन्‍त।

मैं तुम्‍हें बताना ही भूल गया कि मेरी सुबह की नींद में मैंने एक डरावना सपना देखा कि मेरी माँ का निधन हो गया! इतने भयानक सपने को मैं बर्दाश्‍त नहीं कर सकता। मालूम नहीं कि इस सपने का सही-सही मतलब क्‍या होगा। कुछ लोग यह विश्‍वास करते हैं कि सपने में जो दिखे, उसका उल्‍टा परिणाम होता है। इससे मुझे कुछ ढाढ़स बंधा – मतलब ये कि मेरी माँ जिन्‍दा रहेगी। मगर हम ऐसा क्‍यों मानते है? कारण मेरी समझ से परे है। माँ, तुम खूब-खूब जियो! भगवान, मेरी माँ पर दया करना।

ओह, मेरी जिन्‍दगी, मेरा प्‍यार, तुम मेरे पास वापस कब आओगी? क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि मुझे तुम्‍हारी याद कितनी सताती है? अब डिनर का वक्‍त हो गया है, इसलिये कुछ देर के लिये तुम्‍हें अलबिदा कहूँगा। आज रात को मैं भगवान से प्रार्थना करुँगा कि तुम अपने माता-पिता के साथ खुशी से रहो और जल्‍दी ही मेरे पास वापस आ जाओ।

अलबिदा, प्‍यारी!

 

*Amor ut lacrima ab aculo oritur in pectus cadit (Latin): प्‍यार एक आँसू की तरह, आँख से निकल कर सीने पर गिरता है - प्‍यूबिलियस साइरस (fl.1st Century BC)

चौथा दिन

जनवरी १४,१९८२

 

उम्‍मीद है कि अब तक तुम अपने माता-पिता और रिश्‍तेदारों से बातें कर चुकी होगी। मैं समझता हूँ  कि उनके साथ तुम खुश होगी। थाई खाने ने किसी बिछड़े हुए दोस्‍त की तरह तुम्‍हारी जुबान को छुआ होगा। वहाँ के क्‍या हाल हैं? आमतौर से, मेरा मतलब है, मैं खुश हूँ, इसलिये कि तुम खुश हो। तुम्‍हारी खुशी मेरे लिये सबसे महत्‍वपूर्ण चीज़ है।

तुम चाहे जहाँ भी हो, जो भी कर रही हो, मैं अभी भी तुमसे प्‍यार करता हूँ। मेरी भावनाएँ वहीं हैं – तुम्‍हारे बगैर जिन्‍दगी असहयनीय है, बर्दाश्‍त से बाहर है, और अंधेरी है। मैं दिनभर में हजारों बार तुम्‍हारे मेरे पास वापस आने की तमन्‍ना करता हूँ।

कल रात मैं बड़ी गहरी नींद सोया – आराम की नींद, बिना किसी सपने की, इसलिये मैंने सुबह का स्‍वागत हँस कर किया। आज मैंने हम दोनों ही के लिये फायदेमन्‍द काम किये। सुबह दस बजे पहले मैं मि० कश्‍यप के घर गया और तुम्‍हारा काम उनकी पत्‍नी को दे दिया। वे घर पर नहीं थे, मगर उन्‍होंने मुझे अन्‍दर आने और एक प्‍याली चाय पीने की दावत दी। मैंने नम्रता से माफ़ी माँग ली, यह कहते हुए कि मैं फिर से मि० कश्‍यप से मिलने आऊँगा।

फिर मैं लिंग्विस्टिक्‍स डिपार्टमेन्‍ट गया कुछ लेक्‍चरर्स से मिलने जो मुझे अपना रिसर्च टॉपिक चयन करने में मदद कर सकेंगे। मैं प्रोफेसर सिन्‍हा से मिला और उनसे सलाह माँगी। उन्‍होंने मुझेनेगेशन (प्रत्‍याख्‍यान)पर कुछ पुस्‍तकों के नाम दिये और मेरे कार्य की रूप रेखा बनाई। उनकी सलाह से मुझे बड़ी राहत मिली। मैंने डिपार्टमेन्‍ट – लाइब्रेरी से वह पुस्‍तक ली और युनिवर्सिटी कैन्‍टीन आया अपनी भूख मिटाने जो मुझे परेशान कर रही थी। 

केम्‍पस में कर्मचारियों की हडताल अभी भी चल रही है। दिन भर में एक लम्‍बा जुलूस निकल ही जाता है। नारे, माँगे और विरोध उनकी हड़ताल की मुख्‍य बातें हैं, सेन्‍ट्रल लाइब्रेरी के सामने प्रदर्शनकारियों का एक समूह भाषणबाजी कर रहा था अधिक गतिशीलता, अधिक आंदोलनकारियों, अधिक सहभागियों के लिये।

भगवान ही जानता है कि उन्‍हें कितनी सफलता मिली है। ये हर साल ही होता है – मौसम की तरह, मगर इससे हासिल कुछ भी नहीं होता। उनकी माँगों के कोई जवाब नहीं दिये जाते। कैसी बुरी हालत है! इस बेकार की हड़ताल सेबोरहोकर मैं डिपार्टमेन्‍ट गया, यह पता करने के लिये कि क्‍या मैंहेडसे मिल सकता हूँ, इसके बाद गया युनिवर्सिटी कैन्‍टीन। वहाँ मुझे मिले वुथिपोंग, चवारा, प्राचक, और आराम पोल्‍ट्री, जिसने हाल ही में भिक्षु-वस्‍त्र छोड़ दिये हैं। अपनी नई ड्रेस में आराम बड़ा बढि़या लग रहा है। हमने वहीं पर एक छोटी सी पार्टी की और फिर अपने-अपने होस्‍टल चले गए।

शाम को वुथिपोंग फिर मेरे कमरेमें आया। उसने अपने एक-तरफा प्‍यार पर किये गए खतरनाक प्रयोग की प्रगति के बारे में बताया। वह काफी दृढ़ और स्थिरचित्‍त लग रहा था। उसने वादा किया कि चाहे जितना भी कठिन हो, वह अपनी भावनाओं पर काबू पाने की कोशिश करेगा, मैंने उसका हौसला बढ़ाया और उसे इस प्रेम-त्रिकोण से – तीन आदमी और एक लड़की वाले खेल से बाहर निकलने के लिये उसकी मिन्‍नत की। उसने मुझसे और सोमार्ट से उसके साथ पिंग-पाँग खेलने के लिये कहा, मगर हमने यह कहकर माफी़ मांग ली कि हमें इसी समय कई काम करने हैं। वह कमरे से खुश होकर बाहर गया।

एक मजेदार बात हुई पी०जी० वूमेन्‍स होस्‍टल में साढे़ बाहर बजे। मैं वहाँ गया टेप-रिकार्डर, ब्‍लैन्‍केट और बाकी चीजें, जो तुमने मेरे लिये छोडी थीं – लेन। ओनेने मुझे वे चीजें दीं, मगर वह उनके साथ बाहर नहीं निकल सकी। डयूटी वाले चौकीदार ने गेट-पास पूछा, जिसकी ओने को उम्‍मीद नहीं थी। उसे वार्डन के पास जाना पडा़। जब मैं होस्‍टेल-गेट पर इंतजार कर रहा था तो मुझे शुक्‍ला मिली (मैं अपनी डायरी में उसका जिक्र कर चुका हूँ)। मैंने उसे अपनी समस्‍या के बारे में बताया। उसने वादा किया कि वह जल्‍द से जल्‍द इसे सुलझा देगी। कुछ ही मिनटों बाद समस्‍या हल हो गई, शांतिपूर्ण तरीके से। धन्‍यवाद ओने को और शुक्‍ला को।

डिनर के बाद मैंने कुछ देर पढ़ाई की, मगर कुछ भी समझ में नहीं आया। मेरा दिमाग तो सैकडों मील दूर था, वह तुम्‍हारे पास जा रहा था। क्‍या तुमने महसूस किया? कुछ कर पाना मुश्किल था, मैंने तय कर लिया कि मैं सो जाऊँगा और तुमसे मिलूँगा सपने में – उस काल्‍पनिक दुनिया में। जल्‍दी ही तुमसे मिलूँगा, मेरी जान!

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Ab amante lacrimis redimas iracundiam (Latin): आँसू प्रेमी के क्रोध को शांत कर देते हैं। प्‍यूबिलियस साइरस (fl.1st Century BC) 

पाँचवा दिन

जनवरी १४,१९८२

 

इस दुनिया में तुमसे ज्‍यादा मूल्‍यवान मेरे लिए कोई और चीज नहीं है। जब मैं इस कहावत को याद करता हूँ कि ‘‘दूर रहने से प्‍यार बढ़ता है,’’ तो मुझे कुछ आराम मिलता है। मगर जब मैं एक अन्‍य कहावत के बारे में सोचता हूँ, जो कि पहली वाली के एकदम विपरीत है, तो मैं अपने प्‍यार के बारे में परेशान हो जाता हूँ। क्‍या तुम्‍हें याद है? ‘‘नजरों से दूर, दिमाग से दूर’’। कैसा विरोधाभास है। हम ऐसी दुनिया में आजादी से रहते हैं जो बातों में विरोधभासों से परिपूर्ण है, स्‍वभाव से विसंगत है, कामों में दोगली है और रीति-रिवाजों में रूढ़िवादी है, मैं भी उन्‍हीं में से एक हूँ, है ना? चाहे मैं उन्‍हें मानूँ या न मानूँ, वे वैसे ही रहेंगे – भ्रमात्‍मक वास्‍तविकता। माफ करना, मैं जरा बहक गया।

खैर, अपनी आज की दिनचर्या की ओर आता हूँ। कल रात को मैं गहरी नींद सोया –छह घण्‍टे, बिना कोई सपना देखे, उठा तो ताजा-तवाना था, विश्‍वास से भरपूर। सुबह का ज्‍यादातर समय मैंने पढ़ने में, कपड़े धोने में और रेडियो सुनने में बिताया। जिन्‍दगी खुशनुमा ही लग रही थी, मगर भीतर कहीं, मेरा दिमाग अभी भी हताश, सताया हुआ और निराश है। इस खयाल को छिपाने की मैंने पूरी कोशिश की, जैसे वह था ही नहीं, इस बारे में और बात नहीं करेंगे।

एक बजे लाइब्रेरी गया, मैगज़ीन सेक्शन में दो घंटे बैठा। अन्‍दर बहुत अंधेरा था, क्‍योंकि करीब डेढ़ घंटे तक बिजली नहीं थी। बिजली तब आई जब मैं निकलने वाला था। मैं लाइब्रेरी से साढ़े चार बजे निकला। मुझे अचानक याद आया कि तुमने जो खतहेडको लिखा था वह अभी भी मेरी जेब में था। मैं सीधे उनके घर गया, मगर वे घर पर नहीं थे। उनकी बेटी ने मेरा स्‍वागत किया। पहले वह मेरे लिये पानी लाई, फिर एक कप चाय और नाश्‍ता।

हम यूँ ही आम बात चीत करते रहे। वातावरण बड़ा दोस्‍ताना और आराम देह था। जब तक उसके पिता आए वह मुझसे बातें करती रही। मैंने उठकर उनका अभिवादन किया और वे बैठ गए। मैंने खत उन्‍हें दे दिया, मगर उन्‍होंने फौरन उसे पढ़ा नहीं। बल्कि, मुझे ही उन्‍हें बताना पड़ा कि वह किस बारे में है। उन्‍होंने मुझसे पूछा कि क्‍या तुमने अपनी थाईलैण्‍ड यात्रा के बारे में अपनेगाइडको सूचित किया है। मैंने तुम्‍हारी ओर से कहा कि तुमने ऐसा ही किया है। वे सन्‍तुष्‍ट प्रतीत हुए और बोले कि ये तुमने बड़ा अच्‍छा किया। उनकी राय में कोई समस्‍या थी ही नहीं।

वे कुछ थके लग रहे थे इसलिये मैंने उनसे बिदा ली और वापस आने लगा। थका हुआ और अकेला महसूस करता हुआ मैं अचानक चुएन के होस्‍टल गया और ढूँढ़ने लगा। मैं पूरे जोर से चिल्‍ला रहा था, उसे पुकार रहा था। मगर अफसोस, वह वहाँ था ही नहीं। निराश होकर अपने एकान्‍त का मज़ा लेने के लिये मैंने वापस होस्‍टेल लौटने का विचार किया। रास्‍ते में मुझे आराम, बून्‍मी, पर्न और स्‍मोर्न मिले। वे मुझे घसीट कर जुबिली एक्स्टेंशन ले गये। हम पन्‍द्रह मिनट कैरम खेले, फिर किम और निरोडा (बून्‍मी के सपनों की रानी) से मिलें। वह एक बेल्जियम लड़के के साथ खड़ी थीं, जिसे मैं थोड़ा-बहुत जानता हूँ। वे डिनर के लिये कहीं जा रहे थे, मैंने पूछा नहीं कहाँ? अपनी प्रेमिका को किसी और का हाथ पकड़े देखकर बून्‍मी बहुत दुखी हो गया। यह भी एक-तरफा प्‍यार का एक उदाहरण था, आपराधिक प्‍यार का शिकार। वह काफी परेशान और असहज लग रहा था। मैंने उससे कहा कि जितना दुख तुम स्‍वयँ अपने आपको देते हो, उतना कोई और नहीं देता, मगर वह मेरी बात नहीं समझा और एक भी शब्‍द कहे बिना चला गया।

हम उसकी भावनाओं को समझ रहे थे और हमेशा उसके निर्णय का आदर करते थे। इस पीड़ादायक प्‍यार से उसे कौन बाहर निकालेगा? मुझे ताज्‍जुब है। किस ने मुझसे हैलो कहा, मगर वह महज औपचारिकता थी। उसकी जिन्‍दगी सभी प्रतिबंधो से मुक्‍त है। मेरी नजर में, यह एक आज़ाद पंछी की जिन्‍दगी है जो निरूद्देश्‍य ही इस असीम आकाश में उड़ता है। मुझे पता नहीं कि उसकी आखिरी मंजिल क्‍या होगी।

यहमेरा मामला नहीं हैऐसा सोचकर मैं उसके लफडों के बारे में कुछ नहीं कहूँगा। अपने कमरे में मैं शाम को साढ़े सात बजे आया। मैं अपने बिस्‍तर पर बैठा, उनींदी चेतना, थकी हुई रूह, विचारमग्‍न दिमाग को रेडियो के गीतों से जगाने की कोशिश करते हुए। डिनर के बाद मेरठ से एक भिक्षु दोस्‍त मुझे आशिर्वाद देने आया। वह एक हँसमुख, चंचल, मजाकिया किस्‍म का है। मुझे और लगभग सभी को वह अच्‍छा लगता है।

वह मज़ाक करता है, हमारे लिये अपने आपको हँसी और खुशी का स्‍त्रोत बनाता है। मैं उसकी सच्‍चाई और दोस्‍ताना स्‍वभाव की कदर करता हूँ। इसी ने मेरी घड़ी दुरूस्‍त करवाई थी, मुझसे पैसे भी नहीं लिए। मैं उसका शुक्रगुजा़र हूँ। धन्‍यवाद, मेरे पवित्र भिक्षु। अपने पीछे मेरे कमरे में वह अपने अस्तित्‍व की और परफ्युम की सुगन्‍ध छोड़ गया। यह था उसकी भेंट का अन्‍त और, यही है आज की डायरी का अन्‍त!

मेरा दिल हमेशा तुम्‍हारे प्रति वफादार रहेगा।











 

 

*Amare et sapere vix conceditur (Latin): प्‍यार करना और अकलमन्‍द होना तो भगवान के भी बस में नहीं हैं। प्‍यूबिलियस साइरस (fl.1st Century BC) 

छठा दिन

जनवरी १६,१९८७२

 

जितनी ज्‍यादा तुम्‍हारी याद आती है, उतनी ही ज्‍यादा तुम्‍हारी ज़रूरत महसूस होती है।

दिमाग में तुम्‍हारे प्रति नाज़ुक और प्रेमपूर्ण भावनाएँ इस कदर भर गई हैं। एक पल को भी तुम्‍हें भूलने की जुर्रत नहीं कर सकता। मेरे दिल पर तुम पूरी तरह से छा गई हो। अपनी मर्जी से मैं अपने आपको पूरी तरह तुम्‍हें समर्पित करता हूँ। ये है मेरी आज की डायरी की प्रस्‍तावना!

मैं सुबह आठ बजे उठा। कमरे से बाहर निकलने का भी मन नहीं हो रहा था, मैंने रेडियो लगाया, वॉयस ऑफ अमेरिका सुनता रहा ८-४० तक। इस डर से कि ब्रेकफास्‍ट खत्‍म न हो जाये, बाथरूम भागा, फिर होस्‍टेल-मेस, अपना ब्रेकफास्‍ट खाने। दस बजे “Negation in English” (अंग्रेजी में प्रत्‍याख्‍यान) की फोटोकापी करवाई पास की दुकान से .३९ रू० प्रति फोटोकापी के हिसाब से। कितना ज्‍यादा लेते हैं- खून चूस लेते हैं। वापसी में मैं म्‍यूएन के रूम पर रूका लिंग्विस्टिक्‍स की कुछ और किताबें देखने के लिये, जो मेरे शोध-विषय के लिये सहायक हों। कुछ किताबें मेरे काम की हैं। मैं होस्‍टल पहुँचा लंच के लिये और फिर सो गया।

अपने कमरे से उकता कर मैं मैगजि़न-सेक्‍शन गया और वहाँ कुछ घंटे बिताए। काफी फ़ायदेमन्‍द है वे चीजें सीखना जो मैं नहीं जानता हूँ तो, मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि शिक्षा के बिना जिन्‍दगी वैसी ही है जैसे दिमाग के बिना कोई बच्‍चा। ये ऐसी चीजों को इकट्ठा करने जैसा है जिनकी किसी को ज़रूरत नहीं है। दूसरे शब्‍दों में शिक्षा और जिन्‍दगी को ‘‘एक ही’’ समझना चाहिए। इन्‍हें अलग नहीं किया जा सकता, मगर इनका समन्‍वय करके जिन्‍दगी को काबिले बर्दाश्‍त और खुशनुमा बनाया जा सकता है। ‘‘मोन्‍टेग्‍यू की व्‍याकरण में प्रत्‍याख्‍यान और अस्‍वीकृति’’ नामक लेख (ले० हेपलमेन) ने दिमाग पर काफ़ी जोर डाला। शैली की दृष्टि से काफि प्रतीकात्‍मक है। मैं इसका सिर-पैर भी नही समझ पाया, मगर मैं पढ़ता रहा, यह सोचकर किकुछ भी नहीं होने से थोडा-बहुत होना बेहतर है।५-३० बजे मैंने पढ़ना खत्‍म किया और यूनिवर्सिटि-स्ट्रीट से होकर वापस होस्‍टल आया।

यूनिवर्सिटी-पोस्‍ट ऑफिस में रूका कुछ एरोग्राम्‍स लेने के लिये। क्‍लर्क बोला, ‘‘स्‍टॉक नहीं है।’’ बगैर कुछ कहे मैं मुड़ा और चल पडा। वापस होस्‍टल में – ६-३० बजे। जब मैं कमरे में घुसा तो प्रयून और सोमार्ट के बीच कोईरोमान्टिक बहसहो रही थी। मैं भी बहस में शामिल हो गया मगर उसे आखिर तक नहीं ले जा सका, क्‍योंकि भगवान ने इस विषय की जानकारी मुझे नहीं दी है। 

आज की खास घटनाऍ ये थीः

  1. श्रीमति इन्दिरा गाँधी ने अपनी कैबिनेट में फेर-बदल कियेः

वेंकटरामन को रक्षा मन्‍त्री बनाया गया, वित्‍त-विभाग मुखर्जी को, जे०एन० कौशल को – विधि विभाग, और बारोट, चन्‍द्राकार और वेंकट रेड्डी की छुट्टी कर दी गई (दि स्‍टेट्समेन, दिल्‍ली, शनिवार, जनवरी १६,१९८२)।

2.                   हॉलेण्‍ड से एल० जेन्‍सन का पत्र मिला। वह मेरी मानी हुई बहन जैसी है, जब से हम बैंकोक में मिले थे, चार साल पहले। पत्र का सारांश हैः ध्‍यान और चिन्‍ता, ढेरों शुभकामनाएँ और गर्मजोशी भरा नमस्‍कार।

3.                   आज का मौसम सामान्‍य है। स्‍टेट्समेन कहता हैः आसमान मुख्‍यतः साफ रहेगा। दिन में ठंडी हवाएँ चलेंगी। रात का तापमान करीब 50C रहेगा।

नई दिल्‍ली का अधिकतम तापमान (सफदरगंज) शुक्रवार को था 20.40C (68.7F), सामान्‍य से 10C कम और न्‍यूनतम तापमान था 80C (46.40F) सामान्‍य से 10C ऊपर।

अधिकतम आर्द्रता थी - 78% और न्‍यूनतम - 39%। सूर्यास्‍त - 5.47 बजे, कल सूर्योदय ( 7.15 बजे। चाँद आधी रात से पहले नहीं निकलेगाः चाँद अस्‍त होगा 11.47 बजे। कल चाँद का अंतिम सप्‍ताह है। रोशनी 6.17 बजे तक।

देर हो चली है। मुझे तुमसेगुड नाइटकहना पड़ेगा, वापसी पर मुलाकात होगी!

ढेर सारा प्‍यार।







 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Succesore novo vincitur omnis amor (Latin): नया प्‍यार हमेशा पुराने प्‍यार को हरा देता है Ovid 43 BC-AD C.17 

सातवाँ दिन

जनवरी १७,१९८२

 

आज इतवार है। तुम्‍हारी बेहद याद आ रही है। हम साथ-साथ काम करते रहें है। मगर जिन्‍दगी की ज़रूरत ने, जो अचानक वज्रपात की तरह गिरी, हमें जुदा कर दिया। तुमने मुझे अकेला छोड़ दिया क्रूर भाग्‍य के थपेडे खाने के लिये! मेरे दिल में गम ने अपनी जगह बना ली है। हम, किसी न किसी रूप में, जिन्‍दगी के कैदी हैं। इतना मैं जानता हूँ। हर रोज मैं यही सोचकर अपने आप को दिलासा देता हूँ कि तुम कभी न कभी तो वापस आओगी। मैं अभी भी एक कैदी की तरह अपने प्‍यार के वापस लौटने का इंतजार करने की ड्यूटी निभा रहा हूँ। 

आज सुबह मैं कुछ देर से उठा क्‍योंकि कल रात रोज़मर्रा के कामों में देर रात तक उलझा रहा। दस बजे मैं और सोम्‍मार्ट मुंशीराम बुक स्‍टोर गए, स्‍कूटर से। बदकिस्‍मती से वह बन्‍द था। वजह सिर्फ ये थी कि यह एकछुट्टी!का दिन था। हम आगे कनाट प्‍लेस तक किसी काम से चले गए। इतवार के दिन कनाट प्‍लेस कब्रिस्‍तान की तरह दिखाई देता है। करीब-करीब सारी दुकानें बन्‍द थीं। कुछ विदेशी टूरिस्‍ट्स कॉरीडोर्स में, फुटपाथों पर और सड़कों पर चल रहे थे। सड़क पर गाडियाँ लगातार आ-जा रही थी। ट्रैफिक सुचारू रूप से चल रहा था।

पालिका प्‍लाजा़ बन्‍द था। सिर्फ रेस्‍तराँ और थियेटर्स खुले थे। घूमने निकलने से पहले हमनेहेस्‍टी-टेस्‍टीरेस्‍तरॉ में सस्‍ता-सा लंच लिया। फिर हम एक गोलाकार पथ पर एक जगह से दूसरी जगह चलते रहे। हमने शुरूआत कीहेस्‍टी–टेस्‍टीसे पालिका प्‍लाजा़ तक, जनपथ, फिरक्‍वालिटी रेस्‍तराँके सामने रीगल तक। हमने ज्‍यादातर समय सड़क पर लगी दुकानों में सस्‍ते कपडों और किताबों को देखने में बिताया। साड़ी पहनी सुन्‍दर, जवान लड़कियों को देखना अच्‍छा लग रहा था।

वे रेगिस्‍तान में किसी नखलिस्‍तान की तरह मालूम होती थी। एक दिलचस्‍प बात यह हुई कि जब हमक्‍वालिटी रेस्‍तराँके सामने किताबें छान रहे थे तो हमें एक अजीब सा आदमी मिला। सोम्‍मार्ट ने जन्‍म-कुण्‍डली पर एक किताब उठाई और उसका कवर देखने लगा। वह अजीब आदमी उसकी तरफ आया और पूछने लगा

‘‘क्‍या तुम बौद्ध हो?’’

‘‘हाँ’’ सोम्‍मार्ट ने ताज्‍जुब से कहा। आदमी ने आगे पूछा, ‘‘क्‍या तुम जन्‍म–पत्री में विश्‍वास करते हो?’’

सोम्‍मार्ट जवाब देने से हिचकिचा रहा था। मैं परिस्थिति समझ रहा था और मुझे डर था कि सोम्‍मार्ट कहीं उसके जाल में न फँस जाए, मैं बोल पड़ा

‘‘ये बस व्‍यक्तिगत दिलचस्‍पी है।’’

उसने यूँ सिर हिलाया, जैसे इस बात को जानता है। फिर उसने किताब की कीमत पूछी और सोम्‍मार्ट के लिये उसे खरीद लिया। सोम्‍मार्ट इस प्रतिक्रिया से कुछ चौंक गया। उसे समझना मेरे बस के बाहर की बात थी। उसने एक-तरफा बात-चीत शुरू कर दी, स्‍वगत भाषण, धर्मों पर और आध्‍यात्मिकता पर। हम उसकी बातों पर पूरा ध्‍यान दे रहे थे, सिर्फ इसलिये कि उसका मन पढ़ सकें और यह पता कर सकें कि वह किस तरह का आदमी है। उसके हुलिए और उसकी बातों के आधार पर मैं उसे कोई धार्मिक कट्टरपंथी कहूँगा। 

उसका मुख्‍य उद्धेश्‍य था धर्म के प्रति उसके अपने मूल्‍यांकन को लोगों में फैलाना। इस लिये, मेरे दिमाग पर कोई प्रभाव नहीं पडा़। मैं तो इसे एक आकास्मिक आश्‍चर्य कहूँगा, बस, और कुछ नहीं।

हम १०४ नंबर की बस पकड़ कर होस्‍टल की ओर चले। जब हम दरियागंज पहुँचे (लाल किले के निकट), तो हमने अपना इरादा बदल दिया और वहाँ फुटपाथ पर लगी ढेर सारी पुस्‍तकों की प्रदर्शनियों के लिये वहाँ उतर पड़े। ज्‍यादातर किताबें बेकार की थीं, फटी हुई और गन्‍दी। अपने लालच को रोक न पाने से मैंने दो किताबें खरीद ही ली १२० रू० में।

हम वहाँ से हटे, कुछ आगे चले लाल किले की ओर कपडे देखने के लिए जिनकी ढेर सारी किस्‍में वहाँ रखी थीः कोट, ओवर-कोट, स्‍वेटर और भी न जाने क्‍या-कया। उन्‍हें देखते-देखते थककर हमने वापस जाकर लाल किले वाले बस-स्‍टॉप से बस पकड़ने का निश्‍चय किया, वहाँ हमें फागा मिली जो थाई लोगों की चर्चा का केन्‍द्र थी। वह अपने फ्लैट पर जा रही थी। हमने भी वही बस पकड़ी और मॉल-रोड तक हम साथ ही रहे। वह शेखी मार रही थी, जैसे वह अपनी किस्‍म की एक ही थी। ये भी एक चौंकाने वाला संयोग था।

आज रात मेरे होस्‍टल में खाना नहीं था इसलिए मुझे और सोम्‍मार्ट को खाने के लिये कहीं और जाना पडा। हमने ग्‍वेयर हॉल में खाना खाया। खाना एकदम बेस्‍वाद थाः दाल, सब्‍जी और चावल – हमेशा ही की तरह। मैं नहीं कह सकता कि आज का दिनउल्‍लेखनीयथा।

मैं थक गया था, मेरी जान, मैं जल्‍दी सोना चाहता था। अगर सलामत रहा तो तुमसे मिलूँगा। मैं तुमसे सपने में मिलूँगा। शुभ रात्रि, मेरे प्‍यार।










 

 

 

*Credula res amor est (Latin): प्‍यार में हम हर चीज पर विश्‍वास कर लेते हैं Ovid 43 BC-AD C.17 

आठवाँ दिन

जनवरी १८,१९८२

 

आज मैं ‘‘स्‍टेट्समेन’’ की हेडलाईन देखकर बुरी तरह चौंक गया, लिखा थाः ‘‘अमेरिका के स्‍नायु-गैस संग्रह करने के कदम पर चिंता।’’ आगे लिखा थाः 

‘‘राजनयिक एवं सैन्‍य पर्यवेक्षक रीगन प्रशासन के स्‍नायु गैस को उत्‍पन्‍न करने तथा संग्रहित करने के तथाकथित फैसले से चिंतित हैं जिसे सोवियत संघ के साथ युध्‍द होने की स्थिति में इस्‍तेमाल किया जायेगा। सोवियत संघ के रासायनिक शस्‍त्रों के निर्माण के जवाब में अमेरिका स्‍नायु-गैस का निर्माण करेगा।’’

निःसंदेह, यह दोनों महाशक्तियों के बीच के ख़तरनाक संघर्ष की मिसाल है। मुझे दो शब्‍दों में निहित अर्थ से धक्‍का पहुँचा हैः स्‍नायु-गैस और रासायनिक शस्‍त्रास्‍त्र। मैं सोच भी नहीं सकता कि इनमें से किसी का भी क्‍या भयानक परिणाम होगा। मेरे विचार से, यदि ऐसा होता है तो इसका मतलब होगा पूरी दुनिया का विनाश, और मानव जाति का भी नाश। हमें घुटने टेक कर ईश्‍वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि दुनिया में इस तरह का विनाश न हो।

सुबह मैंने दो घंटे बढ़िया नींद ली। खास कुछ करने को था नहीं, इसलिये सो गया। वैसे स्‍वभाव से मैं आलसी नहीं हूँ। तुम तो जानती हो, है ना? मगर, आह, मैं पैदा भी थका हुआ था (मेरी माँ ने बताया था!)

मैं १२.०० बजे उठा। सबसे पहला काम – होस्‍टल के लेटर-बॉक्‍स में तुम्‍हारा खत देखना। मगर कोई फा़यदा नहीं हुआः अब तक तुम्‍हारा कोई खत नहीं आया। मैं बेचैन हो रहा हूँ, मेरी प्‍यारी! मैं बड़ी संजीदगी से तुम्‍हारी ओर से किसी खबर का इंतज़ा‌र करता रहा - जब से तुम गई हो तब से। मगर भगवान ने अब तक मेरी प्रार्थना नहीं सुनी। मैं मायूस हो गया। मैं कमरे मे वापस आया और बड़ी मायूसी से सूरते-हाल पर गौर करने लगा। प्‍यार मानसून की तरह हैः आता है, तेजी से बरसता है, फिर चला जाता है। ये बड़ी बुरी बात है, क्‍योंकि मैं ऐसा प्‍यार चाहता हूँ जो भरोसे के काबिल हो, जैसे कि सूर्यास्‍त। मैंने अपने आपको यह सोचकर समझाने की कोशिश की कि वक्‍त मेरे हर सवाल का जवाब देगा। निराशा के बादल छँट गए। बडा सुकून मिला!

मैंने हमेशा की तरह लंच-टाईम पर खाना खाया और एक घंटे तक अपने कमरे में गाने सुनता रहा। फिर मैं लाइब्रेरी गया और मैगजि़न-सेक्‍शन में दो घंटे बिताए। तीन दिनों से जो निबन्‍ध अधूरा पड़ा था वह पूरा किया। वहीमोन्‍टेग्‍यू की व्‍याकरण में प्रत्‍याख्‍यान और स्‍वीकृति। पीछा छूटा। मैं सेन्‍ट्रल लाइब्रेरी से बाहर आया और आर्टस फैकल्टी की लाइब्रेरी गया ‘‘Reading in English Transformational Grammar (by Jacobs and Rosenbaum) (जैकब और रोजे़नबाम की ‘‘अंग्रेजी परिवर्तनीय व्‍याकरण पर निबंध’’) लेने। यह किताब मेरे शोध कार्य के लिये अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण है। मुझे कुछ परेशानी हुई क्‍योंकि मैं कैटलोग नंबर देखे बिना लाइब्रेरियन के पास चला गया। पहले तो उसने मेरी सहायता करने से इनकार कर दिया, इसलिये मैंने खुद ही उसे ढूँढ़ने की इजाजत माँगी। उसने इजाजत दे दी। मगर मेरा काम बना ही नहीं, क्‍योंकि मुझे उस जगह की आदत नहीं थी।

उसे मेरी दया आई। उसने कैटलोग नंबर ढुँढने में मेरी मदद की और आखिरकार वह किताब ढॅूढकर मुझे दे दी जिसकी मुझे इतनी जरूरत थी। मैंने उसे धन्‍यवाद कहा और संतुष्‍ट होकर लाइब्रेरी से निकला। आधे-अधूरे मन से मैं होस्टल लौटा (बचा हुआ आधा मन तुम्‍हारे साथ था)। वापस आते समय मुझे फुटपाथ पर मॅूगफली बेचने वाले की गरीबी का अहसास हुआ। इसलिये मैंने मूँगफली के बहुत छोटे पैकेट के लिये उसे एक रूपया दे दिया। जुबिली एक्‍सटेन्‍शन हॉल के पास मुझे रेव चावरा मिले। मैंने उन्‍हें मूँगफली पेश की। उन्‍होंने थोड़ी सी लीं हम जुदा हुए।

मैं 5.30 बजे होस्‍टल पहुँचा, १५ मिनट थोड़ा आराम किया और धुले हुए कपड़े इस्‍त्री करने के लिये धोबी के पास गया जो वुथिपोंग के कमरे में था। जब तक मेरा काम हो रहा था मैं वुथिपोंग से गप्‍पें लड़ाता रहा। डिनर के लिये वापस होस्‍टल आया। होस्‍टलर्स मेस के दरवाजे पर जमा हो गये थे, हरेक ‘‘पहले’’ घुसना चाहता था। मैं न तो पहला था, न ही आखिरी। मगर बेशक मैं पहले बैच में था! डिनर मेंमीट’ (मटन) था। इसलिये वे धक्‍का-मुक्‍की कर रहे थे। लानत है!

डायरी मैंने डिनर के बाद लिखी। अब मैं इसे खतम कर रहा हूँ। इसके बाद मैं थोड़ी देर पढूँगा और फिर तुम्‍हेंगुड नाईट कहूँगा। अन्‍त में, मुझे विश्‍वास है किःप्‍यारआता-जाता रहता है, मगर एक प्‍यार करने वाला इन्‍सान कभी गर्मजोशी नहीं खोता। काश, मैं तुम्‍हेंगुड नाईटचुंबन दे सकता। अलबिदा, मेरे प्‍यार। तुमसे फिर मिलूंगा। तुम्‍हारे प्रति अपने तमाम समर्पण और लगन के साथ।      

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Quarebam quid Amarem (Latin): मुझे किसी की तलाश है प्‍यार करने के लिये। एनन 9th Century AD 

नौंवा दिन

जनवरी १९,१९८२

 

आज देश व्यापी हड़ताल का दिन है सरकार द्वारा घोषित हड़ताल-विरोधी कानून के खिलाफ। यह कानून सभी प्रकार की हड़तालों को प्रतिबंधित करेगा और गवर्नर को यह अधिकार प्रदान करेगा कि जिससे राष्‍ट्रीय शांति के लिये खतरनाक या अहितकर व्‍यक्ति को अदालत में मुकदमा चलाए बिना गिरफ्तार किया जा सके। कर्मचारियोंके लिये पूरे दिन छुट्टी है। इस आखिल-भार‍तीय हड़ताल की योजना आठ ट्रेड-यूनियनों ने बनाई है, जिन्‍होंने एकअंतिम संयुक्‍त अपीलजारी करके मजदूरों को आज काम बन्‍द करने के लिये कहा है। जिन ट्रेड-यूनियनों ने हड़ताल प्रायोजित की है उनमें ऑल इंडिया ट्रेड-यूनियन काँग्रेस (INTUC), सेन्‍टर ऑफ इंडियन ट्रेड-यूनियन (CITU) और भारतीय मजदूर संघ शामिल हैं। हड़ताल, जो सरकार की मज़दूर विरोधी नीतियों के खिलाफ है इन्‍टक द्वारा प्रस्‍तावित है और कई छोटी यूनियनों ने इसका समर्थन किया है। मगर रेलवे और टेलिग्राफ और आवश्‍यक सेवाओं को हड़ताल से बाहर रखा गया है; हड़ताल का मुख्‍य असर सार्वजनिक उपक्रमों और निजी उद्योगों पर पड़ेगा।

दिल्‍ली यूनिवर्सिटी ने कक्षाएँ निरस्‍त कर दी हैं। दिल्‍ली के प्रमुख बाज़ार बन्‍द रहेंगे। राज्‍य एवं केन्‍द्र सरकार ने शांति बनाए रखने और उद्योगों के चलते रहने के लिये कई उपाय किये हैं। आवश्‍यक सेवा केन्‍द्रों पर पुलिस वाले और सादे कपड़ो में पुलिसकर्मी तैनात हैं। भारत बन्‍द के दौरान कई असामाजिक तत्‍वों को गिरफ़तार किया गया है। दिल्‍ली में ४२ लोग गिरफ्तार किये गए हैं। यह खबर UNI ने दी हैं।

जा़हिर है, मैं आज कमरे में ही रहना पसन्‍द करुँगा, रेडियो सुनूंगा, किताबें पढॅूगा, मैगजिन्‍स छानूंगा - समय बिताने के लियें। ब्‍लैक कॉफी अभी भी मेरी अच्‍छी दोस्‍त है। कोशिश कर रहा हूँ कि रोजमर्रा की जिन्‍दगी मुझे बेहदबोरन कर दे। सुबह देर से नहाया। सोचो, ये तुम्‍हारी उम्‍मीद के कितना खिलाफ है कि मैं नहाऊँ। मगर मैंने ऐसा किया। तुम मेरेअच्‍छेव्‍यवहार से संतुष्‍ट हो? आज लंच नहीं मिला क्‍योंकिऑल-इंडिया स्‍ट्राईकहै।

मगर लंच-पैकेट बॅाट गये। 11 बजे से 6 बजे तक मुझे तुम्‍हारे खत का इंतजार था, मगर फिर से निराशा ही हाथ लगी। थाईलैण्‍ड जाकर तुम्‍हें एक हफ्ता हो गया...तुम्‍हारे बारे में बिना किसी खबर के। मेरे लिये यह बड़ी निराशाजनक बात है। तुम्‍हें क्‍या हो गया है? क्‍या तुम नहीं जानतीं कि तुम्‍हारे खत के लिये मैं मर रहा हूँ? क्‍या तुम मुझे भूल गई हो? क्‍या मैं इतनी आसानी से भुलाया जा सकता हूँ?

ये सारे ख़याल जबरन दिमाग में घुस आते हैं। लंच टाईम के बाद मैं अपने कमरे में गया और किताबो तथा रेडियो से दिल बहलाने की कोशिश की। पढ़ते-पढ़ते और सुनते-सुनते मेरी आँख लग गई। पाँच बजे मुकुल आया मुझे उठाने। हमने एक दूसरे कोविशकिया और अपने काम की प्रगति के बारे में बातें करने लगे, ऑल-इंडिया स्‍ट्राईक के बारे में भी बातें कीं। मुकुल एक सच्‍चा दोस्‍त है जो जरूरत के वक्‍़त काम आता है। जब भी मैं बेचैन होता हूँ, वह मेरी मदद के लिये आ जाता है। उसने मुझसे पूछाः 

‘‘तुम्‍हारी गर्ल-फ्रेन्‍ड कैसी है?’’

‘‘वह अच्‍छी है,’’ मैंने कहा, ‘‘धन्‍यवाद!’’

मैंने उसे नहीं बताया कि तुम थाईलैण्‍ड गई हो। मैंने इसे हमेशा गुप्‍त ही रखा। उसे इस बारे में शक भी नहीं हुआ। हम एक विषय से दूसरे विषय पर बातें करते रहेः पढ़ाई,धर्म,राजनीति इत्‍यादि। हम गहराई में नहीं गए क्‍योंकि हमें इन विषयों का पर्याप्‍त ज्ञान नहीं था। यह काम हमने विशेषज्ञों के लिये छोड़ दिया। मैंने उसके लिये ब्‍लैक कॉफी बनाई और, जाहिर है, मेरे लिए भी। फिर हम आराम से मिलने जुबिली एक्‍स्‍टेन्‍शन हॉल गये। वह वहाँ नहीं था क्‍योंकि वह हाल ही में नयाराऊण्‍ड़ अबाउट’ (‘एजेन्‍ट’) बना है, यानी वह व्‍यक्ति जो घूम-घूम कर लोगों से ऑर्डर लेता है और उन्‍हें सामान लाकर देता है। बेचारा! हम आगे CIE तक गये इस उम्‍मीद में कि वह वहाँ मिल जाए। 

 हमे ताज्‍जुब हुआ यह देखकर कि वह अचान चुएन के कमरे में था। रेवरेण्‍ड चावारा और प्राचक भी वहाँ थें। एक ही किस्‍म के पंछी, जिन्‍हें एक दूसरे का साथ अच्‍छा लगता है। उनके लिये दोस्‍ती दुनिया की हर दौलत से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है। मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ। कुछ देर बाद हम हॉस्‍टेल के कॉमन रूम में पिंग-पाँग खेलने लाए। खेल से लम्‍बे समय तक दूर रहने के कारण मैं लगभग हर गेम हारता गया। आराम ने काफ़ी तरक्‍की कर ली है, आचान चुएन अपने पहले ही स्‍तर पर है, प्राचक और चावारा बस देख रहे थे।

मैं हॉस्‍टेल गयास्‍पेशल डिनरके लिये। सोम्‍मार्ट अभी तक वापस नहीं लौटा था। मैं नहाने की सोच रहा था, मगर ये सोचकर इरादा बदल दिया कि मैं डिनर के लिये लेट हो जाऊँगा। मैंने नहाने का कार्यक्रम कल तक के लिये स्‍थगित कर दिया। कभी मैं सोचता हूँ कि ‘‘टाल-मटोल करना समय की चोरी करने जैसा है,’’ कभी मैं ऐसा नहीं सोचता। उम्‍मीद है तुम इसके लिए मुझे माफ करोगी।

शाम को अपने प्‍यार की समस्‍याओं के बारे में बात करने वुथिपोंग मेरे पास नहीं आया, शायद प्‍यार ठंडा पड़ रहा है। मैं सोचता हूँ कि वह एक चिर निराश प्रेमी है। मुबारक हो! सोम्‍मार्ट अपनी पढा़ई के बारे में संजीदा है। रात को हम दोनों ने एक दूसरे से बहुत कम बातें कीं। वजह मामूली हैः हम एक दूसरे के मामलों में दखल नहीं देते। मुझे यह अच्‍छा लगता है। सबसे पहली चीज है पढा़ई - बाकी बातें बाद में। सम्रोंग हमारे पास नियमित रूप से आता है। प्राचक अंतर्मुख है। मुझे उसका अकेलापन अच्‍छा लगता है और मैं कभी उसकी जिन्‍दगी में दखल नहीं देता। उसे अपने एकान्‍त का आनन्‍द उठाने दो।

दिल्‍ली में जीवन आज सामान्‍य है। हालात आम तौर पर काबू में हैं। मौसम अभी भी ठण्‍डा है, कोहरा है, मगर हवाएँ नहीं चल रही हैं। चीजें और घटनाएँ तो आती जाती रहती हैं, मगर तुम मेरे दिल में हमेशा हो। तो ये आज के मेरे अंतिम शब्‍द हैं, क्‍योंकि आज की डायरी हम दोनों के बीच हौले से बन्‍द हो रही है। अलबिदा, खुश रहो ... ओह, चलते-चलते, मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ!

 

*Nondum amaban, et amare amabam…quaerebam quid amarem, amans amare (Latin): मैं प्‍यार करने नहीं लगा, मगर मुझे प्‍यार करने पर प्‍यार आता है, मैं इंतजार करता हूँ किसी के प्‍यार करने का, प्‍यार करने को प्‍यार करता हूँ – से० अगस्‍टीन AD (354-430) 

दसवाँ दिन

जनवरी २०,१९८२

 

मैं बहुत आहत हूँ, बुरी तरह आहत हूँ। अब तक तुम्‍हारी कोई खबर नहीं आई है। मैं परंशान हूँ। तुम्‍हें हुआ क्‍या है? क्‍या तुम इतनी व्‍यस्‍त हो कि मुझे एक लाईन भी नहीं लिख सकती? मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी भावना को अपने दिल में रखो और उस पर विचार करों। अगर तुम मेरी जगह होतीं, तो तुम्‍हें पता चलता कि मैं भविष्‍य का सामना किस मुश्किल से कर रहा हूँ। मुझे बहुत तकलीफ होती है, मेरी जान। तुम एक नई चीज हो गई हो मेरी जिन्‍दगी में जिसके बिना मेरा काम नहीं चलता। क्‍या तुमने इस बारे में कभी सोचा है? तुम्‍हारे बिना जिन्‍दगी की कल्‍पना भी नहीं कर सकता। तुम्‍हारे बगैर तो मैं अपनी जिन्‍दगी की हर आकांक्षा को छोड़ दॅूगा। याद रखो कि ‘‘एकता हमारी शक्ति है, विभाजन हमारी निर्बलता!’’

ठीक है, बहुत हो गया। मैं वापस अपनी दिल्‍ली की जिन्‍दगी पर आता हूँ।

आज कोई अखबार नहीं आया। यह कल की ऑल इंडिया हड़ताल का अप्रिय नतीजा है। धन्‍यवाद, भारतीय लोकतन्‍त्र! सुबह मैं काफी व्‍यस्‍त रहाः उठा, नहाया, नाश्‍ता किया, कपड़े धोए और उन्‍हें सुखाया। ये सारे उकताहट भरे काम करने के बाद मैं एक २० पृष्‍ठों का लेख फोटोकॉपी करवाने के लिये निकला।

जब मैं ग्वेयर हॉल के कैन्‍टीन तक पहुँचा, तो चू मेरी ओर साइकिल पर आ रहा था।

कहाँ? उसने पूछा

फोटोकॉपी करवाने,’’ मैंने जवाब दिया।

उसने मुझसे अपनी साइकिल पर बैठने को कहा और फोटोकॉपी वाली दुकान तक ले जाने की इच्‍छा जाहिर की। मैं मान गया। जब हम वहाँ पहुँचे, तो बिजली नहीं थी। दुकानदार ने कहा कि मैं एक बजे आकर फोटोकॉपी ले जाऊँ। जब मैं उसकी साइकिल पर बैठ कर वापस आ रहा था तो मैंने सोचाः एक अच्‍छी सैर दूसरी का वादा करती है। मैंने उससे कहा कि साइकिल किंग्‍ज-वे कैम्‍प की ओर ले चले। जिससे हम लंच के लियेपोर्कखरीद सकें। किंग्‍ज-वे कैम्‍प के पास वाले ब्रिज पर हमें रेनू मिली जो अपनी टीचर बसन्‍ता से मिलने जा रही थी। उसने हमसे थाई तरीके सेनमस्‍तेकिया। मैंने उसे वुथिपोंग के कमरे पर लंच की दावत दी। उसने स्‍वीकृति में सिर हिलाया। फिर हमने उससे बिदा ली। मैंने पोर्क के लिय १५रू० दिये हम वुथिपोंग के कमरे पर आए। हमने ‘‘चू’’ को अकेले पकाने के लिये छोड़ दिया और हम वुथिपोंग के क्‍लास से लौटने का इंतजार करने लगे। मैंने अपने हॉस्‍टल में झांका यह देखने के लिये कि कहीं तुम्‍हारी चिट्ठी तो नहीं आई है। (मुझे कितनी उम्‍मीद थी कि तुम्‍हारा खत आएगा)। मगर मुझे बडी निराशा हुई यह देखकर कि मेरे लिये कोई खत नहीं था। मैं इतना उदास हो गया, अपने आप को ढाढ़स बंधाने की भी ताकत नहीं रही। तुमने मुझे छोड दिया! तुमने मुझे फेंक दिया! अपनी निराशा से दूर भागने के लिये मैंने प्राचक को मेरे साथ पिंग-पाँग खेलने के लिये कहा। प्राचक ने अपने हॉस्‍टल में खाना खाया, मैंने वुथिपोंग, चू और ओने के साथ खाया। रेणु नहीं आई। हम उसे याद करते रहे मगर इस बारे में कुछ कर नहीं सके। मुझसे पूछना मत, प्‍लीज, कि लंच के समय मुझे तुम्‍हारी याद आई या नहीं, जा़हिर है कि जब हम बढि़या लंच करते हैं तो तुम्‍हारी याद आती ही है। यह तो मालूम ही है। समझाने की ज़रूरत नहीं है। ठीक है? लंच के बाद ओने और चू ग्‍वेयर हॉल गए टयूटोरियल्‍स के लिये। मैं और वुथिपोंग कमरे में ही रहे। किसी टूटे हुए दिल वाले के लिये खामोशी एक खतरनाक हथियार होता है। इस बात को ध्‍यान में रखते हुए मैंने उसके साथ बात-चीत शुरू कर दी। हमारी बात-चीत कुछ गपशप जैसी ही थी। हमेशा की तरह मैंने वुथिपोंग को उसके दिल का दर्द ऊँडेलने दिया और उसकी समस्‍या का कोई हल सोचने लगा। मैं पूरे ध्‍यान से उसकी बात सुन रहा था और उसकी जिन्‍दगी-या-मौत वाला मामला समझ रहा था। चू बीच में टपक पडा़, वह कोई चीज़ लेने आया था, जो वह भूल गया था। उसकी यह दखलन्‍दाजी सन्‍देहास्‍पद थी। वुथिपोंग ने अन्‍दाज लगाया कि उसने हमारी गपशप सुन ली है। मैंने इस ओर जरा भी ध्‍यान नहीं दिया, क्‍योंकि मेरे दिल में किसी के भी प्रति बुरी भावना नहीं थी। मैंने भी वुथिपोंग से कहा कि वह फिकर न करे। इसके बाद मैं उसे अपने साथ फोटोकॉपी की दुकान पर घसीट कर ले गया, और वहाँ से होस्‍टेल। सोम्‍मार्ट कमरे में नहीं था। उसकी प्रयून के साथ बूनल्‍यू के कमरे में रोज विशेष टयूशन होती है। हमने कुछ गाने सुने। वुथिपोंग नहाया और फिर कमरे से गया। 

मैं कंबल में दुबक कर तीन घंटे सोया। यह नींद दिन भर की परेशानियों पर पर्दा डालने जैसी थी। जब मैं नींद में था तो किसी ने खिड़की पर टक-टक की, मैं अलसाया हुआ था, मैंने उठकर नहीं देखा कि यह कौन था। शाम को 5.30 बजे मैंने अपनी आँखें खोलीं, पहला ही ख़यालः क्‍या तुम्‍हारा खत आया है? मैंने दरवाजे के नीचे देखा। चौकीदार ने भीतर सरकाया होगा, मैंने सोचा। मगर उसका नामो निशान नहीं था। मुझे ऐसा लगा कि मेरी सारी शक्ति निकल गई है। निराशा से मैं अपनी छोटी-सी कॉट से उतरा और अकेलेपन तथा झल्‍लाहट से बचने के लिये कुछ न कुछ करता रहा –डिनर तक अपने आपको व्‍यस्‍त रखा।

चूंकि मैं डिनर पर देर से पहुँचा, इसलिये मुझे चावल नहीं मिला। मैंने तीन चपातियॉ और दाल खाई। सब्‍जी को हाथ भी नहीं लगाया। बस यही मेरा डिनर था। आज की डायरी के बाद लिख रहा हूँ। रात को मैं बस डायरी ही लिखता हूँ, कुछ और करने का मन ही नहीं होता।

मेरे ख़याल बस तुम्‍हारे ही इर्द-गिर्द घूमते हैं। अब, मैं डायरी लिखना बन्‍द कर रहा हूँ। मैं ‘‘सोच रहा हूँ ’’ कि नहा लूँ और कुछ देर तक कुछ बेकार की चीजें पढूँ, फिर सो जाऊँ। उम्‍मीद के बावजूद उम्‍मीद करता हूँ कि तुम जल्‍दी वापस आओगी।

दिल का तमाम प्‍यार!



*Blanditia non imperio fit dulcis Venus (Latin): प्‍यार में मिठास आती है लुभावनेपन से न कि हुकूमतशाही से – प्‍यूबिलियस साइरस F1. 1st Century BC

ग्‍यारहवाँ दिन

जनवरी २१,१९८२

 

धरती सूरज के चारों ओर घूमती है और अपनी अक्ष पर भी घूमती रहती है। पुल के नीचे से काफी पानी बह चुका है। वक्‍त हर चीज को बदल देता है, हर जिन्‍दगी को निगल जाता है। मैं नहीं जानता कि जिन्‍दगी कितनी उलझन भरी है। पिछली जुलाई में मैं पच्‍चीस साल का हो गया। जब मैंने अपनी पिछली जिन्‍दगी में झांक कर देखा तो वहाँ सिर्फ ‘‘एक शून्‍य’’ मिला। जिन्‍दगी की अकेली राह पर, मैं एक लड़की से प्‍यार कर बैठा। मगर अब उसने अपने माता-पिता की खातिर मुझे छोड दिया है। उम्‍मीद के बावजूद उम्‍मीद करता हूँ कि वह किसी दिन लौट आएगी। मैं उसका इंतजार कर रहा हूँ। अब तक उसका एक भी खत नहीं आया है। वह मुझे भूल गई होगी, हमारे रिश्‍ते को भूल गई होगी। क्‍या हमारा प्‍यार इतिहास में जमा हो गया है? ताज्‍जुब है, अब मुझे अहसास होने लगा कि अपने अपने दिलों की गहराईयों में हम सब अकेले हैं। अकेलापन हर इन्‍सान के लिये एक छुपे-शैतान की तरह है। हमें उसका सामना अकेले ही करना है। हाय, जिन्‍दगी!

अच्‍छा, अब, मैं वापस आज की डायरी पर आता हूँ और इस खयाल से छुटकारा पाने की कोशिश करता हूँ कि तुमने मुझे फिलहाल छोड़ दिया है या कभी नहीं छोड़ोगी।

सुबह, सब कुछ वैसा ही रहाः उठना, मॅुह-हाथ धोना नाश्‍ता करना, और, बस! 11.30 बजे मैं यूनिवर्सिटी की एके‍डेमिक ब्रांच गया सवाद के लिये प्राविजनल सर्टिफिकेट लेने, जिसके लिये मैंने दस दिन पहले दरखास्‍त दी थी। काऊन्‍टर पर लिखा थाक्‍लोज्‍ड!मैंने इसकी ‘‘छोटी खिड़की’’ पर टक-टक की। एक आदमी ने उसे खोलकर पूछा कि मैं क्‍या चाहता हूँ। मैं मुस्‍कुराया और मैंने अत्‍यधिक नम्र होने की कोशिश की। मैंने उसे प्रोविजनल सर्टिफिकेट वाली रसीद दिखाई। उसे बड़ा गर्व महसूस हुआ, स्‍वयं को महत्‍वपूर्ण समझते हुए वह भी नरम पड़ गया। मैं उसकी खुशामद करने लगा। मुझे ऐसा लगा कि अगर किसी इंडियन से काम निकलवाना हो तो उसे हमेशा यह दिखाओ कि वह तुमसे श्रेष्‍ठ है। धन्‍यवाद, महात्‍मा गाँधी! उसने फौरन प्रोविजनल सर्टिफिकेट बना दिया। मैंने उसे बहुत बहुत धन्‍यवाद दिया और मैं काऊन्‍टर से चल पड़ा। कैम्‍पस में लोग भाग-दौड कर रहे थे।

कर्मचारियों की हड़ताल अभी भी जारी है। वाइस चान्‍सलर बिल्डिंग के पास वाला यूनिवर्सिटी गार्डन संघर्ष कर रहे कर्मचारियों से खचाखच भरा है। यूनियन के प्रेसिडेन्‍ट ने माईक पर कहा ‘‘कर्मचा‍री, जिन्‍दाबाद!’’ कर्मचारी छोटे-छोटे गुटों में बैठे थे। कुछ लोग मूँगफलियाँ फोड़ रहे थे, कुछ ताश खेल रहे थे, और कुछ अपने नेता का भड़काऊ भाषण ध्‍यान से सुन रहे थे। कुछ महिला कर्मचारी भी शामिल थी। वे अपने लीडर को सुनने के बजाय बुनाई कर रही थी। कितनी बेकार की हड़ताल है। बिल्‍कुल एकता नहीं है। मैंने गार्डन के चारों ओर घूम कर अपना अवलोकन खत्‍म किया और वापस होस्‍टल आ गया। मेरे निरीक्षण ने मुझे यह सुझाव दिया कि कर्मचारियों की हड़ताल का उद्देश्‍य हैः सुरक्षा की भावना, सामाजिक मान्‍यता और आर्थिक लाभ। वे कहाँ तक सफल होंगे? यह तो मैं तुम्‍हें नहीं बता सकता। मेरी नजर में, तो यह एक हर साल खेला जाने वालागेमहै, जिसमें कोई पुरस्‍कार नहीं है, बेकार की मेहनत!

मैं लंच के लिये होस्‍टल वापस आया और 4.30 बजे तक कमरे में ही बन्‍द रहा। ओने ने बताया कि वह तुम्‍हारा नहाने का कोट लाकर देगी, और मैं ग्‍वेयर हॉल पर उससे कोट ले लूँ। मैं वहाँ निश्चित समय पर पहुँचा (5.00 बजे) कमरे में हॉमसन, ओन, पू और उसका बच्‍चा बातें कर रहे थे। मैंनेहैलोकहते हुए कोब (पू के बच्‍चे) का चुंबन लिया और ओने से कोट के बारे में पूछा। वह तो उसे लाना भूल गई थी! मुझे उसके साथ जाकर हॉस्‍टेल से कोट लेना पड़ा। मैंने उससे तुम्‍हारे पापा द्वारा तुम्‍हारे लिये भेजे गये खत के बारे में भी पूछा (ओने ने कल बताया था)। मुझे ऐसा करने के लिये (तुम्‍हारी इजाज़त के बिना) इस बात ने मजबूर किया कि मुझे तुम्‍हारे पापा की खैरियत की फिक्र है। माफ करना। एक बात और भी हैः मैं यह समझता हूँ कि अगर तुम्‍हारे पापा को कुछ हो गया, तो तुम मुझे खत नहीं लिखोगी। अब मैं निश्‍चिंत हूँ, क्‍योंकि मुझे मालूम है कि तुम्‍हारे पापा ठीक हो रहे हैं (उनके तुम्‍हारे लिये लिखे खत के मुताबिक)। पहली बार मैंने थाराटीकी लिखाई देखी। इतनी बढि़या है कि एक आठ साल का बच्‍चा ऐसे कर सकता है। मैं वाकई इस बात के लिये उनकी तारीफ करता हूँ।

मगर अब मुझे यह खयाल परेशान कर रहा है कि तुम्‍हारे पापा के काफी ठीक हो जाने के बाद भी तुम मुझे क्‍यों नहीं लिख रही हो। ऐसा महसूस होता है कि मेरा दिल रौंदा जा रहा है। यह खयाल मुझे पागल बना रहा है, मेरी जान। क्‍या तुम महसूस कर सकती हो? मुझे मालूम है कि तुम अपने पापा के और मेरे बीच में बंटी हुई हो। मैंने तुम्‍हारे पापा का खत पढा़। मैं पिता का प्‍यार, दुलार, चिन्‍ता और फिकर महसूस कर रहा हूँ जिसका काई मोल नहीं है।

पिता और पुत्री का संबंध इतना गहरा होता है कि उसे किसी भी तरह से तोडा नहीं जा सकता। तब मुझे महसूस होता है कि मैं तो कोई भी नहीं हूँ। यह सोचकर मैं काँप जाता हूँ कि अगर तुम्‍हारे पापा ने हमारे ‘‘जॉइन्‍ट एग्रीमेन्‍ट’’ को सम्‍मति न दी तो हमारा प्‍यार तो बरबाद हो जाएगा। जब वह घड़ी आएगी, तब मैं क्‍या करुँगा? यह सवाल वज्रपात की तरह दिमाग पर गिरा।

मैं, बेशक, तुम्‍हारी तारीफ ही करुँगा, अगर तुम अपने पापा को प्राथमिकता दो। ईमानदारी से कहूँ, तो मैं तुम्‍हारे और तुम्‍हारे पापा के लिये अपनी खुशी को भी ‘‘खत्‍म कर दॅूगा’’। मैं तुमसे वादा करता हूँ कि ‘‘हमारे’’ पापा हमारी हरकतों से आहत नहीं होंगे। आज ‘‘स्‍टेट्समेन’’ अखबार ने हमारे देश (थाईलैण्‍ड) के बारे में एक खबर प्रकाशित की है। यह छोटे कॉलम में है। खबर ऐसी हैः नसबन्‍दी मेराथॉन, बैंकोक, जन. 19। जन्‍म-नियन्‍त्रण प्रचारक मि० मिचाइ वीरावाइ दया ने कल बैंकोक की २००वीं वर्षगॉठ को इस वर्ष एक अनूठे प्रकार से मनाने की योजना की घोषणा की – एक नसबन्‍दी मेराथॉन का आयोजन करके, यह खबर ए०एफ०पी० ने दी है (कुछ अन्‍य अनावश्‍यक विवरण छोड़ रहा हूँ)।

यह खबर पढ़कर इस भयानक दुनिया से मुझे घृणा हो गई। यह धर्म के खिलाफ है! आर्थिक समस्‍याओं का बहाना देकर। ये सिर्फ नर-संहार का कार्यक्रम ही तो है। यह प्रदर्शित करती है वास्‍तविकता का सामना करने की मानव की असमर्थता, मानव की असफलता, मानव का अमानुषपन। आर्थिक संकट को हल करने में असमर्थ इन्‍सान मानव जाति को ही समाप्‍त करने चला है। अगर तुम मृत्‍य के पश्‍चात् की जिन्‍दगी में या ‘‘पुनर्जन्‍म’’ में विश्‍वास करती हो तो तुम इस घृणित योजना के प्रति मेरी असहमति और नफरत को समझ सकोगी। तुम्‍हारा पुनर्जन्‍म होगा कैसे यदि स्‍त्रियों और पुरूपों की नसबन्‍दी हो जाए तो?

अच्‍छे और बुरे कर्मों के परिणाम कहाँ हैं? इसकी सिर्फनिहिलिज्‍म’ (निषेधवाद) – वास्‍तविकता के निषेध से ही तुलना की जा सकती है। मैं इसे सभ्‍य समाज के शैतान द्वारा निर्मित एक निषेधात्‍मक कदम समझता हूँ। मैं, इस कलंकित कदम का विरोध करने वालों में सबसे आगे रहूँगा। इस ईश्‍वर विरोधी योजना का धिक्‍कार हो।









 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Littore quot conchae tot sunt in amore Dolores (Latin): दुनिया में गम इतने हैं, जितनी समुद्र तट पर सींपियाँ – Ovid 43 BC – AD C.17

बारहवाँ दिन

जनवरी २२,१९८२

 

हुर्रे ! दुनिया का एक और विशेष दिन हैः एकता दिवस। वाशिंग्‍टन, D.C., जनवरी २१ प्रेसिडेन्‍ट रीगन ने कल घोषणा की कि ३० जनवरी अमेरिका में ‘‘एकता दिवस’’ के रूप में मनाया जाएगा, निलम्बित पोलिश ट्रेड यूनियन के समर्थन में, रिपोर्टः ए०एफ०पी०।

‘‘एकता’’, उन्‍होंने कहा, ‘‘वास्‍तविक जगत में उस संघर्ष का प्रतीक है जब तथाकथित ‘‘मजदूर’’ मौलिक मानवाधिकारों और आर्थिक अधिकारों के समर्थन में खड़े हुए थे और उन्‍हें सन् १९८० में ग्‍दान्‍स्क  में विजय मिली थी। ये हैं – काम करने का अधिकार और अपने परिश्रम का फल पाने का अधिकार; एकत्रित होने का अधिकार; हड़ताल करने का अधिकार; और विचारों की स्‍वतन्‍त्रता का अधिकार’’ (दि स्‍टेट्समेन)

11.30 से 12.30 बजे तक लिंग्विस्टिक्‍स डिपार्टमेन्‍ट में एक सेमिनार था। रॉबर्ट डी०किंग, यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्‍सास के प्रसिध्‍द ऐतिहासिक-भाषाविद् ने ‘‘सिंटेक्टिक चेंज (पदविन्‍यास-परिवर्तन) पर भाषण दिया। मैं सेमिनार में जाना चाहता था, मगर ऐन मौके पर मैंने न जाने का निश्‍चय कर लिया। दिल ही नहीं हो रहा था सेमिनार में जाने का। मुझे सबके सामने अपना तमाशा बनाना अच्‍छा नहीं लगता, इसलिये मैंने इस मौके का लाभ नहीं उठाया। मुझे लगता है कि मैं एक झूठे-स्‍वर्ग में रह रहा हूँ। सेमिनार में जाने के बदले मैं सोम्‍मार्ट के साथ किताबों की दुकान में गया, एक पत्‍थर-दिल को भूल जाने के लिये, जिसके लिये दिल में थोड़ी उम्‍मीद लिये जी रहा हूँ। 

हमने ड्रेगोना-चाइनीज़ रेस्‍तराँ में लंच लिया। वापसी में सोम्‍मार्ट की नजर अपनी गर्ल-फ्रेण्ड पर पड़ी जो दूसरे लड़कों के साथ बैठी थी। उसे बहुत बुरा लगा। वह सोम्‍मार्ट को देखकर मुस्‍कुराई, मगर वह इतना निराश हो गया था कि मुस्‍कुरा न सका। मेरे साथ होस्‍टेल वह इस तरह आया जैसे उस पर वज्राघात हो गया हो। मैंने उसेशांत रहनेकी सलाह दी, और रास्‍ते भर उसे चिढा़ता रहा। मगर, वह आधा खुश और आधा दुखी था। उसे लग रहा था कि दुनिया उसके विरूद्ध जा रही है। ‘‘प्‍यार का ऐसा तोहफा़’’ जिससे आदमी को पीडा़ होती है, मुझे हैरत में नहीं डालता। आदमी अपने आप से हारने लगता है। बाहय परिस्थितियों को अपना शिकार करने देता है। कुसूर किसका है? किसे दोष देना चाहिए? जवाब देने का दुःसाहस मैं नहीं करुँगा, क्‍योंकि मैं खुद भी उसी कश्‍ती पर सवार हूँ। जीवन परिस्थितियों से अलग नहीं हो सकता। इन्‍सान को जीवन की कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है। खुशी, दुख, सफलता, असफलता इत्‍यादि। जीन पॉल सार्त्र ने एक बार कहा थाः ‘‘इन्‍सान अभिशप्‍त है मुक्‍त होने के लिये,’’ इसका सबूत ढूँढ़ने के लिये दूर जाने की जरूरत नहीं है।

जब आदमी अथाह दुख में डूब जाता है, तो उसके आँसुओं का सैलाब बन जाता है। ये सारे खयाल मैं आज की डायरी में इसलिये लिख रहा हूँ कि मेरे बेचैन दिमाग को कुछ सुकून मिल सके। जब से तुम गई हो, मैं अपने बेचैन दिमाग से संघर्ष कर रहा हूँ। पढा़ई नियमित रूप से नहीं कर पा रहा हूँ। अक्सर अपना आपा खो बैठता हूँ। मैं वह सब करने की कोशिश तो करता हूँ, जो मुझे करना चाहिये, मगर अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता। हे भगवान,  मुझे शांति, शक्ति और सांत्‍वना दो!

आज रात को मैंने होस्‍टेल में खाना नहीं खाया। तुमसे ‘‘सम्‍पूर्ण जुदाई’’ ने मेरे दिमाग को निराशा के गर्त में धकेल दिया है। मैं ग्‍येवर हॉल गया म्‍यूएन की किताब वापस करने, मगर उसका कमरा बन्‍द था। फिर मैं बूम्‍मी के पास गया। म्‍यूएन की किताब उसके पास छोड़कर वापस होस्‍टेल आ गया।

आज डायरी अपनी इच्‍छा के विपरीत लिख रहा हूँ। ये कठोर, अपठनीय और व्‍यंग्‍यात्‍मक लग सकती है। मैं चाहूँगा कि तुम मुझे माफ कर दो।

अभी भी तुमसे प्‍यार करता हूँ।






 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Non tibia b ancilla est incipienda venus (Latin): जब प्रेम प्रदर्शित करते हो, तो नौकरानी से आरंभ मत करो – Ovid 43 BC – AD C.17

 

 

 

तेरहवाँ दिन

जनवरी २३,१९८२

 

कल की रात मेरे लिये बड़ी खतरनाक थी। मैंने कितनी ही कोशिश क्‍यों न की, सो न पाया। मेरा दिमाग एक युद्ध का मैदान होता जा रहा  जहॉ मैं युद्ध जीत सकता हूँ मगर लडा़ई हार जाऊँगा। ऐसा कहीं इसलिये तो नहीं, कि मैंने जिन्‍दगी को काफी हलके से लिया, इसीलिये मैं दुखी हो गया? अंततः मुझे अपने आप को ही ज़िम्‍मेदार मानना होगा।

और अब, मेरी जान, आज के बारे में। सुबह 11.30 बजे मेरे कमरे में एक दारूण घटना घटी। जब मैं आधी नींद में था तो मुझे महसूस हुआ कि कमरे में कोई चीज घुसाई गई है। मैंने फौरन पलटकर उस ओर देखा। एक खत दरवाजे के नीचे पडा़ था। मैं विस्‍तर से कूदा, उसे उठाया, पानेवाले का पता पढा़। मगर वह मेरे लिये नहीं था, वह मेरे रूप-मेट सोम्‍मार्ट के लिये था। मुझ पर वज्राघात हो गया। बारिश नहीं, बल्कि झडी़ लग जाती है! भगवान ही जाने, तुम्‍हारा खत मुझे कब मिलेगा? मैं जिन्‍दगी के हर क्षेत्र में हारा ही हूँ। क्‍या मैं हारने के लिये ही पैदा हुआ था? क्‍या मुझे तुम्‍हारे खत की उम्‍मीद बिल्‍कुल छोड़ देनी चाहिए? इन निराशाजनक सवालों से मुझे जुझना है अपने अस्तित्‍व की रक्षा के लिये। खाने के फौरन बाद मैं पोस्‍ट ऑफिस गया। कुछ तो करना होगा, वर्ना मेरा दिल टुकडे-टुकडे हो जाएगा। मैंने एक छोटा-सा तीन पंक्तियों का पत्र तुम्‍हें भेज दिया। इससे ज्‍यादा लिखने की हिम्‍मत ही नहीं हुई। मैं बस इतना बताना चाहता था कि हर चीज की एक सीमा होती है और हरेक के अपने-अपने दुख-दर्द होते हैं। इसके बाद मैंने काफी हल्‍का महसूस किया और मैं आर्टस फैकल्‍टी की लायब्रेरी चला गया, किताब वापस करने जिसकी जमा करने की तारीख दो दिन पहले गुजर चुकी थी। सौभाग्‍य से मुझे जुर्माना नहीं देना पडा़। अकेलापन और परित्‍यक्‍त महसूस करते हुए में अचानक च्‍युएन के पास गया। वह अपने कमरे में नहीं था। मैंने उसके लिये मेसेज छोडा़ और अपने कमरे पर वापस आ गया। मैंने एक आदमी को तिकोने लॉन में (तुम्‍हारे होस्टेल के पास) पेड़ के नीचे लेटे देखा। वह आराम जैसा लग रहा था, मैं धीरे से, सावधानी से उस ओर गया देखने के लिये कि क्‍या वह आराम था? हाँ, वही तो है! आराम! उसे थोडा़ आश्‍चर्य हुआ कि मैंने उसे पहचान लिया था।

असल में, वह इम्तिहान के लिये कुछ नोट्स पढ़ रहा था और उसकी आँख लगने ही वाली थी, जब मैं उसके पास पहुँचा। मैं भी पीठ के बल लेट गया और हमने दस मिनट तक बातें कीं फिर, मैं खुद ही सो गया। एक ही डाल के पंछी! मैं 4.30 बजे उठा और वापस होस्‍टल की ओर चल पडा़। मैं होस्‍टेल का रास्‍ता पार भी न कर पाया था कि मैंने पोस्‍टमेन को होस्‍टेल के गेट से बाहर निकलते देखा। मेरा दिल बुरी तरह धड़कने लगा। मैं भागकर होस्‍टल में घुसा यह देखने के लिये कि तुम्‍हारा कोई खत तो नहीं आया। उसका कोई नामो-निशान नहीं! मेरी मायूसी को बयान नहीं कर सकता। मेरी जान, तुम मेरे प्रति बड़ी ठण्‍डी और निष्‍ठुर हो।

आज रात खाने में हमें फिश-करी दी गई। भीड बहुत ज्‍यादा थी। मुझे अपने लिये और सोम्‍मार्ट के लिये एक मेज़ लगानी पड़ी। ये एक तरह की सेल्‍फ-सर्विस थी। चम्‍मच पर्याप्‍त नहीं थे। हमने हाथ से खाया और उसका लुत्फ़ उठाया। यह मुझे दूर-दराज के एक गाँव की याद दिला गया जहाँ मैंने अपना बचपन इसी तरह से बिताया था – मेरे माता-पिता और अन्‍य गाँव वालों के साथ। मैंने जल्‍दी-जल्‍दी डिनर खत्‍म किया और अपने कमरे में वापस आ गया। मेरे दिमाग पर फिर निराशा छा गई। मैंने अपने डबडबाए चेहरे को रजाई में ढँक लिया आँसू मेरे गालों पर बह रहे थे। सच कहूँ, मैं आँसू रोक नहीं पाता। मैं एक भावना प्रधान लड़का हूँ जो एक झूठे, गुलाबी सपने में रहता है। हाँ, मैं एक बच्‍चे की तरह चाँद के लिये रो रहा था। सोम्‍मार्ट को मेरी खामोशी से बडा़ आश्‍चर्य हुआ। मैं उसे बेचैन नहीं करना चाहता था, और फिर मैंने वॉयस ऑफ अमेरिका रेडियो स्‍टेशन लगा दिया जिससे चुप्‍पी टूट जाए और उसका ध्‍यान मुझसे हट जाए। मैं बड़े ध्‍यान से रेडियो सुन रहा था, निराशा छँटने लगी थी। मैं संभल गया था। अब मैं फिर से काम करने वाला हूँ। बेकार की बातों पर कितना वक्‍त बरबाद हो गया, विगत के बारे में सोचने पर, भविष्‍य की चिन्‍ता करने में कितना समय खो दिया। जिन्‍दगी में सिर्फ फूल ही फूल तो नहीं हैं, न ! संक्षेप में बर्बाद हुए समय को पूरा करने के लिए मैं काम करने वाला हूँ। मगर, प्‍लीज़ भूलना मत, कि मैं अभी भी तुम्‍हें अपनी बाँहों में देखना चाहता हूँ। जितनी जल्‍दी हो, उतना ही बेहतर!

प्‍यार, पागलपन की हद तक! 




 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Animo virum pudicae non oculo eligunt (Latin) : समझदार औरतें मर्द चुनने में दिल से नहीं, बल्कि दिमाग से काम लेती हैं – प्‍यूबिलियस साइरस F1 1st Century BC

चौदहवाँ दिन

जनवरी २४,१९८२

 

कल मैंने ‘‘रैगिंग ने विद्यार्थी की जान ली,’’ इस समाचार पर ध्‍यान नहीं दिया, क्‍योंकि मैंने इसे महत्‍वपूर्ण नहीं समझा था। मगर आज वही समाचार फिर से प्रकाशित हुआ इसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। प्रेसिडेन्‍ट श्री एन० संजीव रेड्डी ने राज्‍य सरकारों और शिक्षा संस्‍थानों से अपील की कि वे इस ‘‘क्रूर’’ एवम् ‘‘तेजी़ से फैलती बुराई - रैगिंग’’ को रोके। आँसू भरी आवाज में श्री रेड्डी ने रैगिंग करने वालों से पूछाः ‘‘क्‍या तुम लोग विद्यार्थी हो? क्‍या तुम कॉलेजों में पढ़ने के लिये आते हो?’’ स्‍टेट्समेन के अनुसार, रैगिंग ने, जिसकी ‘‘घृणित प्रथा’’ कहकर निन्‍दा की जाती है, जिसमें मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों के सीनियर विद्यार्थी फ्रेश छात्रों की रैगिंग करते हैं, आज अपनी पहली बलि ले ली बैंगलोर युनिवर्सिटी में। उस छात्र ने, जो रैगिंग के अपमान को बर्दाश्‍त न कर पाया, इस घृणित प्रथा के विरोध में आत्‍म हत्‍या कर ली। रैगिंग-दिवस की थाई विश्‍वविद्यालयों में ‘‘नये छात्रों का स्‍वागत करने’’ की प्रथा से तुलना की जा सकती है, जो एक समय में बहुत प्रचलित थी। पता नहीं वह आज भी है या नही। ये थी आज की शोकपूर्ण खबर !

तुम्‍हारे दिल्‍ली से जाने के बाद यह दूसरा इतवार है। मैं लगभग पूरे दिन कमरे में बन्‍द रहा। बाहर जाना अच्‍छा ही नहीं लगता। अपने कमरे में ही पड़े रहना मुझे बड़ा़ अच्‍छा लगता है, मगर तुम्‍हारी बड़ी याद आती है। कुछ भी नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि तुम मुझसे हजारों मील दूर हो। क्‍या तुम एक पल के लिये भी मुझे याद करती हो? शायद नहीं, अगर तुम्‍हें मेरी याद आती, तो तुम मुझे खत लिखती। मगर, तुम तो जानती हो कि मुझे तुम्‍हारी कोई खबर नहीं मिली है। क्‍या इसका मतलब ये हुआ कि तुमने मुझे छोड़ दिया है? जवाब देना मुश्किल है और मैं किसी जवाब को बर्दाश्‍त भी नहीं कर पाऊँगा। मुझे तकलीफ होती है यह सोचकर कि तुम मेरा खयाल उम्‍मीद से कम रखती हो। ये किसी का भी दोष नहीं है। ये सिर्फ वक्‍त का और जिन्‍दगी की जरूरत का मामला है। मैं इसके लिये तुम्‍हें दोष नहीं दे सकता। बल्कि मैं अपने आप को ही दोष दॅूगा कि मैं जिन्‍दगी के प्रति इतना काल्‍पनिक हूँ।

शाम को, करीब 5.30 बजे, मैं मि० कश्‍यप के पास गया तुम्‍हारे काम के बारे में पूछ-ताछ करने के लिये। जब मैं वहाँ पहुँचा तो वे अकेले थे। मैंने उनसे तुम्‍हारे काम के बारे पूछा और यह भी बताया कि मैं कुछ दिन पहले भी आया था। उन्होंने तुम्‍हारा काम अभी तक देखा नहीं है, मगर यह कहा कि तुम्‍हारा काम बढि़या है, क्‍योंकि शुरू करनेसे पहले तुमने उनसे अच्‍छी तरह विचार विमर्श कर लिया था। अब तुम चैन की सॉस ले सकती हो। चिन्‍ता की कोई बात नही। उन्‍होंने मुझसे तुम्‍हारा पता पूछा। मैंने कहा कि तुम्‍हारे पत्र में पता लिखा है। उन्होंने उसे देख लिया और वादा किया कि वे खुद ही तुम्‍हें सूचित करेंगे। वे वाकई में तुम्‍हारी रिसर्च के काम में तुम्‍हारी मदद करना चाहते है। उनके उत्‍साह ने मुझे बहुत प्रभावित किया। तुम्‍हारे काम को एक तरफ रख कर मैंने रिसर्च मेथोडोलॉजी पर कुछ मशविरा किया। रिसर्च कैसे शुरू करना चाहिए, इस बारे में उन्‍होंने एक बड़ी उपयोगी सलाह दी। 6.30 बजे परिवार के सब लोग इकट्ठा हो गए। मैंने प्रसन्‍नता से सबका अभिवादन किया और खास तौर से श्रीमती कश्‍यप सेनमस्‍तेकहा। हमने चाय पी और फिर टी०वी० देखा। इतवार की हिन्‍दी फिल्‍म दिखाई जा रही थी। फिल्‍म एक गरीब परिवार के बारे में थी, जिसके पिता किसी तिकड़म से परिवार की गाड़ी खींच रहे हैं। उन्‍हें रास्‍ते की एक होटल से खाना चुराते हुए पकडा़ गया और दो साल के लिये जेल भेज दिया गया। उन्‍होंने जेल से भागने की कोशिश की मगर पकडे़ गए। इस बार उन्‍हें पाँच साल की कैद की सजा सुनाई गई – वह भी बामशक्‍कत। जब उन्‍होंने अपनी सजा पूरी कर ली तो उन्‍हें रिहा कर दिया गया। मगर समाज ने उन्‍हें ठुकरा दिया। किसी ने उन्‍हें समाज का सदस्‍य नहीं माना। हर जगह उन पर प्रतिबन्‍ध लग गया। एक जेल का पंछी समाज द्वारा अस्वीकृत ही कर दिया जाता है, भले ही उसने खुद को सुधार क्‍यों न लिया हो। कैसे समाज में रहते हैं हम! मगर सौभाग्‍यवश उसकी मुलाकातगुरूसे होती है जो उसे तराश कर हीरा बना देते हैं। तब से वह धार्मिक जीवन जीने लगे। सुखद अन्‍त! बुराई इस तरह से अच्‍छाई में बदल जाती है।






 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Arte perennat amor (Latin): प्‍यार को कोशिशों से संभाला जाता है – प्‍यूबिलियस साइरस F1 1st Century BC

पन्‍द्रहवाँ दिन

जनवरी २५,१९८२

 

यह एक और दिन था, जब मुझे तुम्‍हारे खत का इंतजार था। मैं बैठे-बैठे देख रहा था कि कब पोस्‍टमैन होस्‍टेल-गेट पर एअर-मेल बाँटने आता है। जैसे ही वह आया, मैं उसकी ओर भागा, मगर उसने कहा, ‘‘तुम्‍हारे लिए कोई खत नहीं है!’’ मैं रोने-रोने को हो गया। तुम्‍हें हो क्‍या गया है, मेरी जान? क्‍या तुम मुझे खत लिखने के लिए एक मिनट भी नहीं निकाल सकती? तुम मेरे प्रति बहुत ठंडी और क्रूर हो गई हो। मैं कैसे बर्दाश्‍त करुँ! यह मुझे इतना परेशान कर देता है कि मैं अपने आप को संभाल नहीं पाता। क्‍या तुम महसूस नहीं करती कि मैं तुम्‍हारा इस तरह से इंतजार कर रहा हूँ, जैसे खिलता हुआ गुलाब बारिश का करता है? अगर तुम ही नहीं तो मेरे प्‍यार को कौन सहारा देगा?

मुझे तो ऐसा लगता हे कि तुमसे दुबारा मिलना संयोगवश ही हो पाएगा। रातों में कई बार तुम्‍हारे सपने आते हैं, मगर ये सपने बड़े मनहूस होते हैं। वे मुझे उत्‍तेजित कर देते हैं और मेरी निराशा को हवा देते हैं। मैंने अपने आप को दिलासा देने की भरसक कोशिश की यह सोचकर कि तुम मेरे पास वापस आ रही हो कल, या परसों, या उससे अगले दिन, अगले हफ्ते... ! मैं, बेशक, उम्‍मीद पर ही जी रहा हूँ। मेरी उम्‍मीद तुम्‍हीं से पूरी होगी। मेरी जिन्‍दगी को दुखमय न बनाओ, प्‍लीज।

लंच के बाद मैं होस्टेल के सामने वाले प्‍लेग्राऊण्‍ड पर बैठने के लिये गया। मैं क्रिकेट का खेल देख रहा था, भारतीय खेलों में सबसे लोकप्रिय। मगर भगवान ही जानता है कि मेरा दिमाग खेल में जरा भी नहीं था। वह तो एक हजार मील दूर भाग गया था। खेल में कोई मजा नहीं आया तो मैं भारी दिल से निकट के पोस्‍ट-ऑफिस की ओर चल पडा़, एक ऐरोग्राम खरीदा, उस पर कुछ लिखा, तुम्‍हारा पता लिख और पोस्‍टबॉक्‍स में डाल दिया। ये दूसरा खत लिखा था मैंने तुमको। पहला खत परसों (शनिवार को) लिखा था। उदासी मुझे तुम्‍हें लिखने के लिये कह रही है। मैं इस तरह बेदिल से नहीं रह सकता, मालूम नहीं क्‍यों। इसे मैं अपना कर्त्‍तव्‍य समझता हूँ। मैं उसके घर से शाम 7.00 बजे निकला। कोहरा है और ठंड है। हॉस्‍टेल में वापस आते हुए मैं कोई गीत गुनगुना रहा था। कैम्‍पस नीरव था, आस पास कोई भी नहीं था। कम से कम आज मैंने तुम्‍हारे लिये कुछ किया है। मालूम नहीं तुम मेरी इस मदद की सराहना करोगी या नहीं। मुझे इसकी फिकर नहीं है। मैंने ये ‘‘बस तुम्‍हारे लिये’’ किया।

आज सोम्‍मार्ट ने एक नई बुक-शेल्‍फ खरीदी, मगर इसे रसोई का सामान रखने के लिये इस्‍तेमाल कर रहा है। वह एक अच्‍छा रूम-मेट है, हॉलाकि कुछ भावना प्रधान है। खैर, मैं उसके व्‍यक्तित्‍व को स्‍वीकार करता हूँ और उसकी इज्‍ज़त करता हूँ। कोई भी इन्‍सान सम्‍पूर्ण नहीं होता! मैं उससे ज्‍यादा सम्‍पूर्ण नहीं हूँ। यह आपसी समझदारी है, जो हमें एक दूसरे से बांधे रखती है। हम सभी इन्‍सान हैं। गलती करना इन्‍सान का स्‍वभाव है, क्षमा करना ईश्‍वर का – जैसी कि एक कहावत है!

दोपहर में और शाम को मैं घर पर ही रहता हूँ। 5.30 बजे म्‍युआन मेरे कमरे में गर्म पानी से नहाने के लिये आया। मैंने उससे कहा कि चौकीदार से खत के बारे में पूछ ले। मगर वह यह कहते हुए वापस आया, ‘‘नहीं...नहीं...तुम्‍हारे लिये कोई खत नहीं है।’’ उसने स्‍नान किया और वह अपनेहाऊसचला गया। मैंने अपने लिये कॉफी बनाई, नहाया और आज की डायरी पर वापस आया। मैं कमरे में अकेला हूँ और सोम्‍मार्ट तो सुबह से अपनी क्‍लास में गया है, वह अब तक वापस नहीं लौटा है।

मगर फिर भी मैं इसे संजीदगी से नहीं लेता क्‍योंकि मैं उदास और हताश हूँ। मैं अपनी डायरी अभी खतम करता हूँ इस शिकायत के साथ, ‘‘मेरे पास जल्‍दी से आ जाओ, मेरी जान!’’ मैं तुम्‍हें देखने के लिय बेचैन हूँ।

अब मैं आज की डायरी खत्‍म करता हूँ। अपने माता-पिता के साथ ढेरों खुशी के दिन बिताओ। मगर मुझेगुड-नाइटचुंबन तो लेने दो।





 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Insequeris, fugio; fugis insequor; haec mini mens est (Latin): अगर तुम आई, तो मैं भाग जाऊँगा, अगर तुम भाग गई, तो तुम्‍हारा पीछा करुँगा। मेरा दिमाग इसी तरह से काम करता है – मार्शल AD C.40-C.104 

सोलहवाँ दिन

जनवरी २६,१९८२

 

आज भारत का गणतन्‍त्र-दिवस है, लोग गणतन्‍त्र दिवस की ३३वीं वर्षगांठ मना रहे हैं- घर में बैठे-बैठे टी०वी० देखते हुए, या सड़क के किनारे खड़े-खड़े इंडिया गेट, अथवा कनाट प्‍लेस, या लाल किले पर परेड देखते हुए। मेरे होस्‍टेल में रहने वाले सभी टेलिविजन पर नजरें गडा़ए पूरे देश के साथ खुशी और उम्‍मीद बाँट रहे हैं। गणतन्‍त्र दिवस का महत्‍व पहले भारतीय संविधान से जुडा़ है (मुझे मेरे भारतीय मित्रों ने बताया), अतः यह थाईलैण्‍ड के ‘‘संविधान-दिवस’’ जैसा ही है।

गणतन्‍त्र-दिवस की पूर्व संध्‍या पर प्रेसिडेन्‍ट (संजीव रेड्डी) ने एक लम्‍बा-चौडा़ संदेश दिया, कहीं कहीं वे आलोचना भी कर रहे थे राष्‍ट्रीय-परिदृश्‍य में ‘‘चिंताजनक घटनाओं’’ की; उनमें से कुछ उन्‍होंने गिनाई थी, जो उन्‍हें चिंतित कर रही थीः सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्‍यों की अवहेलना; कानून और व्‍यवस्‍था के प्रति घटता सम्‍मान और हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति तथा कमजोर और निर्दोष लोगों पर बढ़ते अत्‍याचार; विकास का लाभ अधिकांश लोगों तक न पहुँचना और छोटे किसानों एवम् क़षि-मजदूरों की कठिनाईयाँ।

राष्‍ट्र के सम्‍मानित अतिथी थे स्‍पेन के सम्राट जुआन कार्लोस और महारानी सोफिया।

गणतन्‍त्र दिवस के उपलक्ष्‍य में महारानी एलिजाबेथ और ब्रिटिश प्रधानमन्‍त्री श्रीमति मार्गरेट थेचर ने बधाई संदेश भेजे हैं। श्री संजीव रेड्डी को भेजे गए अपने संदेश में महारानी ने कहाः

‘‘गणतन्‍त्र-दिवस के उपलक्ष्‍य में महामहिम को सच्‍ची बधाई देने में मुझे अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। आपके देश एवं उसकी जनता की निरंतर प्रगति के लिये शुभकामनाऍ।’’

इससे मुझे १९७९ के गणतन्‍त्र-दिवस की याद आ गई। वह मेरा भारत में आने का पहला साल था। एक विदेशी विद्यार्थी होने के कारण मुझे बड़े सम्‍मान से गणतन्‍त्र-दिवस पर राष्‍ट्रपति-भवन में आयोजित टी-पार्टी पर, आमंत्रित किया गया था। महत्‍वपूर्ण अतिथि थे फ्रास के प्रेसिडेन्‍ट गिसगार्ड देस्‍तांग, बॉक्सिंग चैम्पियन मुहम्‍मद अली, उनकी पत्‍नी, और उनके मुक्‍केबाजी के पार्टनर, अमेरिका के जिम्‍मी एलिसे। यह बताया गया कि अली जिमी कार्टर (तत्कालीन अमेरिकी प्रसिडेन्‍ट) के नुमाइन्‍दे की हैसियत से आए थे। इन सम्‍माननीय अतिथियों के अलावा कई अन्‍य प्रतिष्ठित व्‍यक्ति भी थे, जैसे कि राजदूत, राजनयिक और अन्‍य महत्‍वपूर्ण संस्‍थाओं के प्रतिनिधि। उस दिन मैं पार्टी में एक बहुत ही छोटा इन्‍सान था। ये सब किस्‍मत की बात थी। इसका तो मैंने कभी सपना भी नहीं देखा था। भारत के राष्‍ट्रपति को बहुत बहुत धन्‍यवाद।

आज मैं घर पर ही रहना चाहता हूँ। ओह, कल रात मैंने सपना देखा कि तुम बड़ी प्रसन्‍नता से मेरे पास आई हो। क्‍या यह शुभ शगुन है, तुम्‍हारे जल्‍दी लौटने का? मैं तहे दिल से तुमसे मिलना चाहता हूँ, चाहे कुछ भी हो जाए। देखो, मेरा प्‍यार कितना गहरा है!

आज काफी बादल हैं। दोपहर में बारिश हुई थी। मैंने ‘‘स्‍पेशल लंच’’ खाया और अचान, च्‍यूएन, आराम या दूसरे थाई विद्यार्थियों से मिलने होस्‍टेल से निकला, मगर मुझे वापस लौटना पडा़; बाहर बारिश हो रही थी। चूंकि ये गणतन्‍त्र दिवस है, रात को खाना नहीं मिलेगा। हमें या तो भूखे रहना पड़ेगा या बाहर जाकर खाना पड़ेगा। ये भारतीय तरीका है अपना गणतन्‍त्र दिवस मनाने का। यह तो अच्‍छी बात है कि साल भर में ऐसे थोडे-से ही दिन होते हैं, जब हमें इस तरह सेउपवासकरना पड़ता है, वर्ना, हम भूख से मर ही जाएँगे। मेरे दिमाग में लोकप्रिय थाई कहावत आती हैः खाने की भूख इन्‍सान को मार सकती है; मगर प्रेम और स्‍नेह की भूख नहीं मारती। मेरे लिये तो इसका उल्‍टा ही सही है! शाम को वुथिपोंग और सांगकोम मेरे कमरे में आए। वुथिपोंग हमारे लिये एक स्‍पेशल खाने की चीज लाया थाः सांगकोम मेरे कपड़े लाया था, जो मैंने महेश को प्रेस करवाने को दिये थे। दोनों को धन्‍यवाद। उनसे बातें करते समय मैंने यूँ ही वुथिपोंग से पूछा लिया कि क्‍या ओने को तुम्‍हारा कोई खत मिला है। उसने कहा कि उसे शनिवार को खत मिला है। तुम्‍हारी सलामती की फिक्र से मैं ओने के पास ज्‍यादा जानकारी लेने के लिये गया। उसने मुझे दिलासा दिया कि तुम और तुम्‍हारे माता-पिता अच्‍छे हैं। मुझे यह जानकर तसल्‍ली हुई कि तुम्‍हारे या तुम्‍हारे माता-पिता के साथ कोई अन्‍होनी नहीं हुई। मुझे अपने आप पर दया भी आई कि मैं तुम्‍हारे बारे में ‘‘ज्‍यादा ही’’ परेशान था।

और, बेशक, जब मैं दूसरों से अपनी तुलना करता हूँ तो मुझे दुख होता है। तुम औरों को लिख सकती हो, मुझे नहीं। मुझे किसी सबूत की जरूरत नहीं है यह निष्‍कर्ष निकालने के लिये कि तुम औरों के मुकाबले मेरी कम फिक्र करती हो। तुम्‍हारे तौर-तरीकों से यह साफ जाहिर है। मैं दिमाग में उलझन लिये होस्‍टेल वापस लौटा। मुझे ऐसा लगता है कि मुझे तुम्‍हारे रास्‍ते से दूर फेंक दिया गया है। तुमने मेरे साथ ऐसा क्‍यों किया, मैं तो हर चीज में तुम्‍हारा ही हूँ, जो भी मैं करता हूँ, मगर तुमसे मुझे प्रतिसाद नहीं मिलता। ये तो बस एक-तरफ़ा मामला है। फिर आपस का प्‍यार कहाँ है? मगर मुझे खुशी होती है, जब मैं यह पूछते हुए अपने आप का मजा़क बनाता हूँ किः कुछ और माँगने वाला मैं होता कौन हूँ? उसे मेरे साथ जैसा बर्ताव करना है, करने दो। ये मेरा ही कुसूर है कि मैं परेशान होता हूँ। अगर मैं मर भी जाऊँ तो मेरी कौन फिक्र करेगा? मेरे लिये कौन रोएगा? मेरे साथ ऐसा ही होना चाहिए। तुम मुझे ‘‘ब्‍लडी फूल’’ कह सकती हो या इसी तरह का कुछ भी।

आज, कोई माफ़ी नहीं माँगनी है, क्‍योंकि मुझे एहसास हो गया है कि मेरे दुख बाँटने वाला इस दुनिया में कोई नहीं है। जब तुम खुश होती हो, तो एक मिनट के लिये भी मुझे याद नहीं करती हो। यह व्‍यक्तिपूरक दुनिया है जहाँ हर इन्‍सान सिर्फ अपने लिये खुशी ढॅूढता है, दूसरों के बारे में जरा भी नहीं सोचता, अपने प्रेमी की तो बात ही क्‍या है! अपने प्रति तुम्‍हारी यह बेरहमी देखकर मुझे बहुत बुरा लगा है। इसका सबूत है मेरी डायरी, आज मेरा दिल डूब रहा है।




*Amore nihil mollies nihil violentius (Latin) : प्‍यार से ज्‍यादा विनम्र और आक्रामक और कुछ नहीं है – एनोन

सत्रहवाँ दिन

जनवरी २७,१९८२

 

आज काफी भाग-दौड भरा दिन रहा। सुबह मैं लिंग्विस्टिक्‍स डिपार्टमेन्‍ट गया – एक किताब लौटाने, मेरे रिसर्च गाईड से मिलने और दोस्‍तों से – भारतीय और थाई – मिलने। हेड ऑफ दि डिपार्टमेन्‍ट (डा० के०पी० सुब्‍बाराव) ने मुझे बुलाया और पूछाः

‘‘तुम घर कब जा रहे हो?’’

‘‘अगले कुछ महीनों में, सर,’’ मैंने कहा।

‘‘मेरे घर में एक और बच्‍चे का जन्‍म होने वाला है,’’ उन्‍होंने बड़े फख्र से कहा।

‘‘ये तो बहुत बढ़िया खबर है, सर, मुबारक हो।’’

‘‘मैं अपने बच्‍चे के लिये थाईलैण्‍ड से कुछ मंगवाना चाहता हूँ। मुझे जाने से दो-तीन दिन पहले बताना, प्‍लीज।’’

‘‘बड़ी खुशी से, सर, मैं जरूर बताऊँगा।’’

फिर उन्‍होंने ‘‘दि ग्रेट कॉफी हाऊस’’ में मुझे और अपने अन्‍य शोध छात्रों की कॉफी पीने की दावत दी। रास्‍ते में हम सोम्मियेंग से मिले। उसे भी हमारे साथ आने की दावत दी। अच्‍छी रही येगेट-टुगेदर। मगर, मैंने कमरे से निकलते समय सोचा था कि तुम्‍हारे सुपरवाईज़र मि० वासित से मिलॅूगा। इत्‍तेफाक से मैंने उन्‍हें मि० कश्‍यप के साथ मेरी ही दिशा में आते देखा, जब मैं कॉफी हाऊस से वापस जा रहा था।

मैं उनसे मूलाकात करने ही वाला था, मगर फिर रूक गया क्‍योंकि वह मि० कश्‍यप के साथ अपनी बातचीत में मशगूल थे। उनकी बातों में खलल डालना ठीक नहीं होता। नतीजा ये हुआ कि मैंने उनसे मिलने का मौका खो दिया। कोई बात नहीं, अगली बार ही सही। मैं आगे चला, अपने गाईड से मिलने। मैंने उनसे कुछ सुझाव लिये और वापस अपने कमरे में आ गया। युनिवर्सिटी स्‍टेशनरी शॉप के पास वाले चौराहे पर मैं टुम और उसकी होस्‍टल की सहेली से मिला। उसने मुझे थाई तरीके से नमस्‍ते किया और अपनी सहेली का परिचय कराया। उसकी सहेली शरारती टाईप की है। वह कलकत्‍ता की है। उसका नाम है कृष्‍णा। पहले तो मैं समझ नहीं पाया कि वह थाई है या भारतीय। मैंने टुम से पूछा। टुम ने मुझे नहीं बताया, मगर यह सलाह दी कि मैं उसीसे पूछॅू।

‘‘क्‍या तुम थाई हो?’’ मैंने उससे पूछा।

‘‘हाँ, मैं थाई हूँ,’’ उसने जवाब दिया।

फिर मैंने उसे थाई भाषा में पूछा, जिससे उसके जवाब की सच्‍चाई का पता चले।

‘‘मा जाक माय (तुम कहाँ की हो?)’’ मैंने फिर उससे पूछा।

‘‘मा जाक माय’’ उसने टूटी-फूटी बोली में सवाल दुहरा दिया।

‘‘तुम्‍हारा झूठ पकडा़ गया!’’ मैंने कहा

‘‘नहीं, मैंने झूठ नहीं बोला,’’ वह मान नहीं रही थी।

मैं उसे सताने लगा।

‘‘तुम एक बहुत बड़ी झूठी हो!’’

उसने एकदम इनकार कर दिया कि वह झूठी है। ये तो अच्‍छा रहा कि हमारी बातचीत ने ‘‘गलतफहमी’’ नहीं पैदा की। टुम हमारे इस शाब्दिक युध्‍द पर खूब हॅस रही थी।

मैंने उन्‍हें ‘‘मिरान्‍डा हाऊस’’ छोडा़ और उनसे ‘‘बाय’’ कहा। मैं कुछ कागज़ खरीदने कोऑपरेटिव स्‍टोअर पर रूका। कागज़ लेकर मैं सीधे होस्‍टल आया। मैंने खाना खाया और पोस्‍टमैन का इंतजार करने लगा। मैंने उससे अपने खत के बारे में पूछा। मगर उसने कहाः

‘‘सॉरी, तुम्‍हारे लिये तो नहीं है, मगर पी०जी० वूमेन्‍स होस्‍टेल में एक थाई लड़की के लिये है।’’

कौन है वो?’

‘‘धी...धी’’ उसने टूटी-फूटी अंग्रेजी में कहा।

‘‘क्‍या मैं ले लूँ? वह मेरी दोस्‍त है,’’ मैने बडे़ विश्‍वास से कहा।

‘‘हाँ, हाँ,’’ उसने कहा।

मैं अपने कमरे में आया और तुम्‍हारे खत को मेज की दराज में रख दिया। आधे घण्‍टे बाद मैं यू०जी०सी० गया, पता करने कि क्‍या स्‍कॉलरशिप की घोषणा हो चुकी है। ऑफिसर ने मुझे सू‍चित किया कि घोषणा की तारीख अप्रैल तक बढा़ दी गई है। मुझे कमिटी की इन तकनी‍की बातों से और विलम्‍ब से निराशा हुई। मगर मैं सिर्फ ‘‘इंतजार’’ ही कर सकता हूँ। मैं यू०जी०सी० बिल्डिंग से बाहर निकला और युनिवर्सिटी के लिये बस का इंतजार करने लगा। बसें खचाखच भरी हुई थी। एक घण्‍टा बीत गया। आखिरकार मैं एक बस में घुसा जिसने, दुर्भाग्‍यवश, मुझे आई०एस०बी०टी० छोडा़। मैंने अब बस नहीं लेने का फैसला किया। मैं लम्‍बा चक्‍कर लगाकर होस्‍टेल आया। उद्देश्‍य ये थेः

  1. अपने आप को इतना थकाना कि मानसिक तनाव कुछ कम हो जाए;
  2. इस व्‍यक्तिपूरक दुनिया को महसूस करना, जैसा कि किसी ने किया था जब वह थाईलैण्‍ड में थी;
  3. यह देखना कि इस घातक-प्रतियोगिता वाली दुनिया में लोग कैसे रहते हैं।

जब में आगे चल रहा था, मैं जीवन की गति के बारे में सोच रहा था। क्‍या विगत मुझे पीछे धकेल रहा है या भविष्‍य अपनी ओर खींच रहा है? मगर मैं फिर भी आगे की ओर ही चलता रहा। अंतिम लक्ष्‍य रहस्‍यमय था, धुँधला था, अनिश्चित था। डा० डब्‍ल्‍यू० डब्‍ल्‍यू डायर, एक प्रसिध्‍द मनोवैज्ञानिक ने, ठीक ही कहा है।

‘‘वास्‍तविकता को पूरे समय कोसते रहने और अपनी प्रसन्‍नता के अवसर को खोने से बेहतर है जीवन की सराहना करना; यह सम्‍पूर्ण समाधान की ओर एक निश्चित कदम हो सकता है।’’ अब मुझे उसके सही निरीक्षण का अनुभव हो रहा है।

यह सैर 45 मिनट तक चली, जब तक मैं होस्‍टेल नहीं पहुँच गया। अब मैं डायरी बन्‍द करता हूँ और नहाने जा रहा हूँ (हमेशा की तरह)। आज मेरा पढ़ने का इरादा है और बाद में मैं सोऊँगा।

अलविदा, फिलहाल!

प्‍यार!

पुनश्‍चः मालूम नहीं तापमान कितना है। मगर आज शाम को ठंड ने मेरी हड्डियों तक में सिहरन भर दी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Omnia vincit Amor: et nos cedamus Amori (Latin): प्‍यार हर चीज का स्‍वामी है, आओ, हम भी प्‍यार के आगे शीश झुकाएँ – वर्जिल 70-19BC

अठारहवाँ दिन

जनवरी २८,१९८२

 

आज दुनिया ‘‘दुर्घटनाओं’’ से भरी है। आज के ‘‘स्‍टेट्समेन’’ के शीर्षकों और उपशीर्षकों पर नजर डालो तो तुम समझ जाओगी कि परिस्थिति कितनी गंभीर है।

  • आगरा में ट्रेनों के टकराने से ६६ की मृत्‍यु
  • १४० लोगों को अस्‍पताल में भर्ती किया गया
  • विमान दुर्घटनाओं में ११० मरे (पेरिस में)
  • ट्रेन पटरी से उतर गई, ६० जख्मियों को बचाया गया
  • बाढ़ से ६०० व्‍यक्ति डूबे (पेरू)
  • २४० गंभीर रूप से घायल

(कटक में एक ट्रक नदी में गिर गया)।

इन दुर्घटनाओं पर शोक-संतप्‍त हुए बिना मैं नहीं रह सकता। दुनिया के मेरे साथियों, मेरी संवेदना स्‍वीकार करो।

और अब, मेरी जान, आज की डायरी! दोपहर को मैं तुम्‍हारे डिपार्टमेन्‍ट गया था। मि० वासित क्‍लास ले रहे थे। उनकी क्‍लास के खत्‍म होने तक मुझे इंतजार करना पडा़। उन्‍होंने अपनी क्‍लास 1.30 बजे समाप्‍त की। क्‍लास के फौरन बाद मैं उनकी ओर लपका। विद्यार्थी उनके कमरे में कुछ और चर्चा एवं सन्‍देह दूर करने के लिये टूटे पड़ रहे थे। तुम्‍हारे काम के बारे में बात करने के लिये मुझे सबसे पहले मौका दिया गया। मैंने अपना उद्देश्‍य स्‍पष्‍ट किया। सबसे पहला सवाल जो उन्‍होंने तुम्‍हारे बारे में किया, वह था,

‘‘उसके पिता कैसे है?’’ औरवह कब वापस आ रही है?”’ मैंने जवाब दिया, ‘‘उसके पिता की तबियत सुधर रही है, सर’’ और ‘‘वह पन्‍द्रह फरवरी के करीब वापस लौट रही है।’’

फिर मैंने तुम्‍हारे काम के बारे में पूछा। उन्‍होंने कहा कि वे सीधे तुम्‍हें ही खत लिखेंगे, क्‍योंकि मेरे द्वारा तुम तक कोई सन्‍देश पहुँचाना किसी काम का नहीं है। मैंने उनसे विनती की कि वे तुम्‍हारे लौटने से करीब सात दिन पहले तुम्‍हें लिखें, ताकि तुम जरूरत की चीजों का समय रहते इंतजाम कर सको। उन्‍होंने मुझे विश्‍वास दिलाया कि वे कल ही तुम्‍हें खत लिखेंगे। मैंने धन्‍यवाद देकर उनसे बिदा ली। दो बज रहे थे। मुझे थोड़ी भूख लगी थी। मगर होस्‍टेल जाकर लंच लेने के लिये बहुत देर चुकी थी, इसलिये मैंने युनिवर्सिटी कैन्‍टीन में ही थोडा़-बहुत खाने का निश्‍चय किया। 

मैंने जेब टटोली, तो उसमें सिर्फ एक रूपया था। मेरा हाथ बहुत तंग है! मैंने लंच के लिये आलू लिये और उसके लिये ८० पैसे दिये। विवेकानन्‍द पुतले के पास मैं आराम और उसके दोस्‍तों से मिला। हमने वहाँ एक ग्रुप फोटोग्राफ लिया। मैं दीदी (म्‍युआन की पत्‍नी) मोमो और अली (थाई मुसलमान) से मिला। वे ओखला में थाई-मनिपुरी डान्स-पिकनिक का आयोजन कर रहे थे। उन्‍होंने मुझे बहुत मनाया उनके साथ जाने के लिए। डान्‍स के लिये थाई लड़कों के साथ मणिपुरी लड़कियों की जोडि़याँ बनाई गई थी।

सुनने में तो बडा़ आकर्षक लगता है, मगर मैं ऐसी किसी पार्टी में भाग लेने का उत्‍सुक नहीं हूँ। मैंने बहाना बना दिया कि मेरे पास बहुत काम पड़ा है। अपने होस्‍टेल में जाने से पहले आराम ने एक प्‍लेट टॉमेटो-सूप पेश किया। मैं 2.30 बजे अपने होस्‍टेल पहुँचा। मैंने तुम्‍हें एक खत लिखा और 3.30 बजे उसे पोस्‍ट कर दिया। मेरा खत तुम्‍हारे काम की प्रगति के बारे में, और आम-जिन्‍दगी के बारे में था। मैंने इस महीने तुमसे कोई खत पाने की उम्‍मीद छोड़ दी है। फिर भी, मुझे उम्‍मीद है कि अगले महीने पहुँचने से पहले तुम मुझे जरूर लिखोगी।

सभी आवश्‍यक कामों को पूरा करने के बाद मैं पीठ के बल लेट गया, मगर मुझे शीघ्र ही मुँह के बल लेटना पडा़ जिससे कि अपने दिमाग में एक अनचाहे खयाल को आने से रोक सकुँ। मगर तभी आचान च्‍यूएन और सोंग्‍कोम मेरे कमरे में किसी काम से आए। मैं बिस्‍तर पर ही लेटा था। तुम मुझे आलसी कह सकती हो। मुझे यह बात साबित करना होगी कि मैं आलसी नही हूँ, मगर तुम्‍हें तो मालूम है कि मैं थका हुआ ही पैदा हुआ था ! आयान च्‍युयन और सोंग्‍कोम ने अपनी पिछली कार्यकारी जिन्‍दगी की सफलताओं को गिनाया और अपनी भावी योजनाओं के लिये प्रेरणा और प्रोत्‍साहन दिया। 

मैं एक अच्‍छे श्रोता की तरह सुनता रहा क्‍योंकि मेरी पिछली सफलताएँ और भावी योजनाएँ समय और प्रयत्‍नों पर निर्भर है। जब वे चले गए तो मैं बिस्‍तर से उछलकर कुछ ब्‍लैक कॉफी ढूँढने लगा। कमरे में शकर नहीं है। खरीदने के लिये पैसे नहीं है। झल्‍लाहट हो रही है। 6.30 बजे सोम्रांग आया सायान और उसके गानों को टेप करने के लिये – जिससे विदेश में थाई माहौल बना सके। टेप करने के दौरान हमें खामोश रहना था, जिससे कि आवाज में कोई दखल न पड़े सोम्‍मार्ट अपनी भावनाओं को न रोक सका। वह कमरे से बाहर गया और चिल्‍लाया ‘‘मैं जल्‍दी से भिक्षु-वस्‍त्र उतार देना चाहता हूँ!’’ फिर वह मुस्‍कुराते हुए कमरे में आया।

हम (सोम्रांग और मैं) चुपके से हँसे। कमरे का वातावरण हल्‍का-फुल्‍का हो गया सोम्‍मार्ट पढ़ रहा है, सोम्रांग भी। मैं भी अपनी डायरी में व्‍यस्‍त हूँ। मेरा आधा दिमाग उस गाने में है जो बज रहा है। एकाग्रता टूट रही है। मैं रोक ही देता हूँ। मिलूँगा तुमसे, मेरे प्‍यार।

पुनश्‍चः डिनर के बाद मैं तीन घंटे पढता रहा। अब मैं सोने जा रहा हूँ। मेरे लिये एक प्‍यारे सपने की दुआ करो, करोगी ना?’








*Nunc iuvat in teneris dominae iacuisse lacertis (Latin): तुम्‍हारे प्‍यार की नर्म बाँहों में सोना कितना प्‍यारा है – ओविद 43BC-AD C.17

उन्‍नीसवाँ दिन

जनवरी २९,१९८२

 

आज के अखबार में मैंने दो कॉलम पढ़े। दोनों ही ‘‘औरतों’’ के बारे में हैं। एक है ‘‘गर्भपात कार्यक्रम’’ और दूसरा है ‘‘ब्रिटेन बलात्‍कारियों पर सख्‍त’’। विवरण के बारे में चर्चा नहीं करनी है, क्‍योंकि मैं अपराध-विशेषज्ञ नही हूँ। मगर एक संभाव्‍य-भाषाविद् होने के नाते मैं इन दोनों कॉलम्‍स में प्रयुक्‍त दिलचस्‍प शब्‍दावली बताता हूँ जिससे इन तकनीकी शब्‍दों के बारे में तुम्‍हें ज्ञान हो सकेः

गर्भपात कार्यक्रम

  1. MTP (मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्‍नेन्‍सी – गर्भावस्‍था की चिकित्‍सकीय समाप्ति)
  2. अवैध गर्भपात
  3. स्‍त्री रोग विशेषज्ञ
  4. अनचाहा गर्भ
  5. वन्‍धीकरण

ब्रिटेन बलात्‍कारियों पर सख्‍त

  1. घटी हुई सजाएं

डेनमार्क में जो बलात्‍कारी बधियाकरण के ऑपरेशन के लिये सहमत हो जाते हैं उन्‍हें अक्सर कम सजा़ दी जाती है।

2.                   बधियाकरण

3.                   हिंस्‍त्र वृत्ति (औरतों के प्रति)

4.                   बलात्‍कार का संकट

5.                   बलात्‍कार या लैंगिक शोषण

6.                   आन्‍तरिक जांच

7.                   लैंगिक अपराध

8.                   लैंगिक दुर्व्यवहार 

9.                   लैंगिक इतिहास

10.               लैंगिक आक्रमण (बलात्‍कार)

11.               जेल की सजा

अदालत ने बलात्‍कारी को कम से कम दो वर्ष के कारागार की सजा सुनाई।

मुझे अत्‍यन्‍त दुख है कि दूसरे कॉलम मेंलैंगिकशब्‍द इतनी बार आया है। मेरा इरादा, बेशक, वीभत्‍स बनाने का नहीं, बल्कि प्रचार करने का है; जोर देने का नहीं, बल्कि अवगत कराने का है। क्‍या मुझे समझ सकती हो? क्‍या मैं अपने आप को समझा पा रहा हूँ? यदि ‘‘हाँ’’, तो मुझे कुछ और आगे जाने दो ‘‘लैंगिक विज्ञान’’ के बारे में नहीं, बल्कि ‘‘डायरी-विज्ञान’’ के बारे में (‘‘डायरी-विज्ञान’’ शब्‍द को मैंने ही अभी-अभी बनाया है और इसे किसी डिक्‍शनरी में नहीं देखा जा सकता)।

आज मैं बहुत सक्रिय नहीं हूँ। आधा दिन तो बिस्‍तर में ही गुजर गया। सुबह मैं हमारी डिपार्टमेन्‍ट लाइब्रेरी गया “Major Syntactic Structure of English” (by Stockwell et al) [अंग्रेजी की मुख्‍य वाक्‍य-संरचना – स्‍टाकवेल द्वारा लिखित] नामक पुस्‍तक लेने। डा० ए०के०सिन्‍हा ने किताब की सिफारिश की है। किताब शांति (एक मणिपुरी लडकी) ने ली हुई है। जब मैं कल और परसों उससे मिला था तो मैंने उसे किताब वापस लौटाने को कहा था। मगर उसने अभी तक लौटाई नहीं है। शायद उसने दोपहर में लौटाई होगी (मेरा खयाल है)। मगर इस किताब के बदले मैंने कुछ और किताबें लीं। ये मुझे कुछ दिनों तक व्‍यस्‍त रखेंगी, जब तक कि मेरी मनचाही किताब मुझे मिल नहीं जाती। कैम्‍पस के चौराहे पर दो भारतीय लड़कियों ने जो एम०ए० लिंग्विस्टिक्‍स कर रही हैं मुझे अमरूद दिया। मैंने सिर्फ इतना कहाः 

‘‘धन्‍यवाद, मुझे अच्‍छा लगा।’’

इसके बाद मैं होस्‍टेल की ओर चला। एक नेपाली लड़का, जो मेरा सहपाठी है मुझे पोस्‍ट ऑफिस में मिला। मैंने उसे अपने कमरे में आने की दावत दी और उसे सिर्फ एक ग्‍लास पानी पेश किया। देखो, मेरे कमरे में किसी का स्‍वागत करने के लिये कुछ और है ही नहीं! मैंने उसे अपने साथ लंच करने के लिये कहा, मगर वह दावत कबूल नहीं कर सका क्‍योंकि उसे 12.30 बजे आल इंडिया रेडियो पर नेपाली ड्रामे में भाग लेना था।

लंच के बाद का समय मेरा था। अपनी ही इजाजत से मैं बिस्‍तर में लेटा रहा। यदि पढा़ई में मन नहीं लग रहा हो तो सोने से ज्‍यादा बेहतर कोई और काम नहीं है। मैंने तीन घंटों तक तान दी। सोम्‍मार्ट कमरे में नहीं है। वह लाइब्रेरी में पढ़ने के लिये गया है। उसे पूछते हुए सोम्रांग दो बार आया था। प्रयून भी इसी काम के लिये एक बार आया था। सोम्रांग आजकल मार्केट की ‘‘दुर्लभ चीज’’ हो गया है। वह गरमा-गरम पकौडों की तरह बिक रहा है! हर कोई उसके पास आता है, उसका भला-साथ पाने को। ऐसा लगता है कि वह लोकप्रिय इन्‍सान है। वह खुद तकलीफ उठाकर भी औरों का मनोरंजन करता है। एक महान आदमी! आज उसके लिए एक चिट्ठी आई है, कहने में अफ़सोस होता है, कि मेरे लिये एक भी नहीं है। इस बात को मैं यहीं छोड़ देता हूँ, वर्ना इससे मेरे शांत ‘‘दिखाई दे रहे’’ मस्तिष्‍क में खलबली मच जाएगी। हर हाल में, तुम्‍हारे वापस आने तक तो मैं इंतजार कर लूँगा। बिदा, मेरी प्‍यारी।

पुनश्‍चः -

डिनर से पहले पोलैण्‍ड के संकट पर कॉमन रूम में बहस हो रही थी। वक्‍ता पोलैण्‍ड के कामगारों का पक्ष ले रहा था, बाहरी दखलंदाजी की निंदा कर रहा था, सत्‍ताधारी वर्ग की भी निंदा कर रहा था और उसने बताया कि आगामी वसन्‍त में आंदोलन फिर से शुरू हो जाएगा।

मुझे इतनी भूख लगी थी कि मैं डिनर का इंतजा़र न कर सका। मैं होस्‍टेल के कैन्‍टीन में ऑम्‍लेट और एक कप चाय के लिये गया। मैंने हौले से चाय की चुस्‍की ली और हमारे गुजरे जमाने की घटनाओं के बारे में गहराई से सोचने लगा। समुन्‍दर की एक लहर की तरह प्रसन्‍नता ने मुझे सराबोर कर दिया। एक पल बाद मैं अपने गहरे विचारों से वापस लौटा और कैन्‍टीन में ऊपर जाकर अपना एक नया खाता खोला। इसमें लिखा थाः ‘‘2.80 पैसे चुकाना है!’’



 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Da mini mille basia, deinde centum, Dein mille altera. Dein Secunda centum Deinde Usque altera, deinde centum (Latin): सौ के बदले मुझे हजा़र चुम्‍बन दो, और एक हजा़र, एक और सौ; फिर एक और हजार और फिर सौ और – होरेस 65-8 BC

बीसवाँ दिन

जनवरी ३०,१९८२

 

चलो, आज की अपनी डायरी तुम्‍हारे प्रति प्‍यार को वाक्‍य-विन्‍यास द्वारा प्रदर्शित करते हुए करता हूँ:

‘‘मैं तुमसे इतना प्‍यार करता हूँ जो पत्‍थर के दिल को भी पिघला दे, मगर वह एक जीवित, सांस लेती हुई औरत के दिल को, जैसी कि तुम हो, पिघलाने के लिये काफी कम है।’’

यह वाक्‍य मेरे ‘‘प्रेम पर शोध-प्रबन्‍ध’’ का सार है, जो मैं ‘‘जीवन के विश्‍वविद्यालय’’ में ‘‘हयूमेनिटीस’’ में पी०एच०डी० के लिये प्रस्‍तुत करने जा रहा हूँ। मैंने तुम्‍हें अपना गाईड बनाने का निश्‍चय कर लिया है। मैं उसके साथ काम करने को तैयार हूँ और मुझे विश्‍वास है कि मेरा शोध-प्रबन्‍ध दो या तीन महीनों में पूरा हो जाएगा।

और अब, मेरी प्‍यारी, दिल्‍ली की अपनी जिन्‍दगी के बारे में।

कल रात मैं सो नहीं पाया और सुबह भारी दिमाग और थके शरीर से उठा। मानसिक तल्‍लीनता ने परेशानी, चिन्‍ता और अनिद्रा को जन्‍म दिया। मगर यह कोई जिन्‍दगी और मौत का मामला तो नहीं है। यदि हम मानसिक शांति वापस ला सकें या फिर ध्‍यान-धारणा में मगन हो जाएं तो इससे छुटकारा पा सकते है। मुझे इसकी फिकर नहीं है। यह तो मानव जीवन का एक प्रसंग है। ठीक है। आगे बढो।

सुबह 9.30 बजे मैं सोम्रांग के साथ कनाट प्‍लेस गया। वह चार्टर्ड बैंक में अपना ड्राफ्ट भुनाना चाहता था और किताबों के प्रति अपनी क्षुधा को शांत करना चाहता था। और मेरा उद्देश्य था उसका मार्गदर्शक साथी बनना। जब तक वह अपनी बारी का इंतजार कर रहा था, मैं बैंक से खिसक लिया जिससे दुकान की खिडकियों से किताबों को पास से देख सकूं। जब मैं बैंक वापस पहुँचा तो वह मेरी ओर लपका और बोलाः 

‘‘तुमने एक असफल बैंक-डकैती के चश्‍मदीद ग्‍वाह बनने का मौका खो दिया।’’

फिर वह हौले-हौले मुझे पूरी कहानी सुनाने लगाः

‘‘अलार्म-बेल गा रही थी। गार्ड ने अपने सिपाही को फायर करने के लिये तैयार रहने को कहा।’’

‘‘क्‍या हो रहा है?’’ मैंने उससे पूछा।

‘‘काऊन्‍टर पर झगडा़ हो रहा था। वह इतना खतरनाक था कि हर कोई घबरा गया। मगर वह मजाक ही निकला।’’

‘‘क्‍या वास्‍‍तविक मजाक है।’’ मैंने कहा।

हम हँस पड़े और बाहर निकले। कनाट प्‍लेस पर हम किताब के शिकारियों की तरह एक दुकान से दूसरी दुकान में घूमते रहे। उसे एक भी किताब पसन्‍द नहीं आ रही थी। मैं तो सिर्फ किताबें छान रहा था। थकावट और भूख के कारण हमने ‘‘नॉक-आऊट’’ में खाना खाया। भारत में आने के बाद से उसका यह पहला मौका था, भारतीय मार्केट में जाने का, और तुम्‍हारे दिल्‍ली से जाने के बाद मेरा भी पहला मौका था। इसके बाद हमने मुन्‍शीराम पब्लिशर्स तक रिक्‍शा किराये पर लिया (कनाट पलेस से तीन रूपये)। किताबें चुनने में डेढ़ घंटा लग गया। उसने दो किताबें लीं और हम होस्‍टेल वापस आ गए। जब होस्‍टेल पहुँचा तो मेरे सिर में बेहद दर्द हो रहा था। मैंने दो घंटे बिस्‍तर में आराम किया। महेश आया, नहाने के लिये। मैं जागा, मगर सिर में दर्द अभी भी था। जब मैं यह लिख रहा था, डिनर की बेल बजने लगी। मैंने तय किया कि डायरी पूरी करके डिनर के लिये देर से जाऊँगा। अब मैं नहाने जा रहा हूँ, और फिर डिनर! आज रात को पढूँगा। तुम्‍हारे लिये मीठे सपने की कामना करता हूँ, मेरी जान।

पुनश्‍चः आज रात को सोम्‍मार्ट को जुकाम हैं। मैं चाहूँगा कि वह जल्‍दी सो जाए, लाईट बन्‍द हो गई है।




 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Nox at amor uinumque nihil moderabile suadent (Latin): रात और प्‍यार और शराब संयम नहीं सिखाते – ओविद 43BC-AD C 17

इक्‍कीसवाँ दिन

जनवरी ३१,१९८२

 

प्‍लीज, मुझसे यह न पूछो कि मैं तुमसे कितना प्‍यार करता हूँ। मैं जवाब नहीं दे सकता। प्‍यार नापा नहीं जा सकता। उसे तो महसूस करके ही जाँचा जा सकता है। तुम ये बात मानती हो ना? ठीक है। चलो, आज की डायरी शुरू करुँ।

कल महात्‍मा गॉधी को उनकी ३४वीं पुण्‍य-तिथि पर फूलों से श्रध्‍दांजली दी गई। यह दिन (३० जनवरी) शहीद दिवस के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है। दिल्‍ली में राजघाट पर (हम वहाँ कई बार गए हैं) एक सादा-गंभीर समारोह आयोजित किया गया। होस्‍टेल में तो गॅाधी जी की ३४वीं पुण्‍य तिथि को मनाने के लिये कोई विशेष आयोजन नहीं किया गया। यह और दिनों की तरह ही एक दिन था। गॉधी जी की शहादत के बारे में कोई कुछ नहीं कह रहा था। मेरा खयाल है कि यह मृत-इतिहास का एक मामला है।

और आज खबर ये है कि दो अपराधियोः बिल्‍ला और रंगा को, जिनके दहशत भरे अपराध ने सभी भारतीयों को झकझोर दिया है, फाँसी पर चढा़या जाएगा। इन दोनों को गीता चोपडा़ और उसके भाई संजय की २६ अगस्‍त १९७८ को हुई हत्‍या के सिलसिले में मौत की सजा सुनाई गई थी। उनकी मौत की सजा भगवान बुद्ध के इस वचन की पुष्टि करती हैः अच्‍छा करोगे तो अच्‍छा पाओगे, बुरा करोगे तो बुरा पाओगे (ये मेरा अपना अनुवाद है) सत्‍य!

अब तुम्‍हें जिन्‍दगी का दूसरा पहलू दिखाता हूँ। क्‍या तुम्‍हें मालूम है? आज इतवार है। मैंने उठकर काफी दिनों के बिना धुले कपड़े भिगोए। ब्रेकफास्‍ट के बाद मैं उन्‍हें धोने और सुखाने के लिये वापस आया। और अब मैं डायरी लिख रहा हूँ। मालूम नहीं कहाँ जाना है और क्‍या करना है। सबसे पहले खयाल जो दिल में आया, वह तुम्‍हारे बारे में था। तुम्‍हारी बेहद याद आ रही है। तुम यहाँ हो नहीं, मैं क्‍या करुँ? जब तुम मुझसे दूर हो तो यह डायरी मेरी सबसे अच्‍छी दोस्‍त बन सकती है। सुबह 9.30 बजे, जब मैं अखबार पढ़ रहा था, मेरे कमरे में एक लड़का आया। मैंने उससे ‘‘हैलो’’ कहा और उसे सोम्‍मार्ट से बातो में लगा दिया। उसने दावा किया कि उसने ‘‘हस्‍तरेखा विद्या’’ पढ़ी है – एक प्रसिद्ध ‘‘गुरू’’ से। सोम्‍मार्ट बडा़ उत्‍सुक हो गया। उसे अपनी हथेली फैला कर उस लड़के से पढ़ने के लिये कहा। हमारे स्‍व–घोषित हस्‍तरेखा विद्वान ने अपना काम किया।

मुझे ताज्‍जुब हुआ कि उसके अध्‍ययन में काफी दम था। सोम्‍मार्ट ने भी स्‍वीकृति में अपना सिर हिलाया। अब, मैं अपनी जन्‍म कुंडली के प्रति उत्‍सुक हो गया। वह मेरी ओर मुड़ा और मेरी हथेली का अध्‍ययन करने लगा। उसके कुछ निष्‍कर्षों से तो मैं सन्‍तुष्‍ट था। मगर सबसे भयानक बात जो उसने बताई, वह ये थी कि मेरा चार शादियों का योग है; दो तो बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट हैं, मगर अन्‍य दो काफी संदिग्‍ध हैं – यह भी उसने कहा। मगर उसने मुझे यह कहकर सांत्‍वना दी कि यह निष्‍कर्ष हमेशा सही नहीं होते, इन्‍सान अपनी जिन्‍दगी सुधार सकता है, उसे सफल बना सकता है। यह हमारी इच्‍छा–शक्ति और दृढ़ इरादे पर निर्भर करता है।

इस घड़ी मैं यह जोड़ सकता हूँ : जहाँ चाह है, वहाँ राह है। इसमें कोई सन्‍देह नहीं कि मैं उसकी भविष्‍यवाणी पर या स्‍वयं अपनी जन्‍म कुण्‍डली पर भी विश्‍वास नहीं करता हूँ। मैं अपनी खुद की बनाई गई जिन्‍दगी पर और अपनी मान्‍यताओं पर भरोसा करता हूँ। अपनी जीवन-शैली मैं खुद बनाऊँगा और उसका एक शांत आत्‍मविश्‍वास, रचनात्‍मक साहस से पालन करुँगा, क्‍योंकि मैं एक विशेष व्‍यक्ति हूँ, और आम आदमियों की तरह मैं नहीं हो सकता, अगर चाहूँ तो भी नहीं हो सकता। क्‍या मैं अहंकारी प्रतीत हो रहा हूँ? उम्‍मीद है कि ऐसा नहीं होगा। अब मैं कुछ देर रूकूँगा और बाद में आगे लिखूँगा (हो सकता है, शाम को)।

गुड इविनिंग, माय स्‍वीटी ! मैंने तुमसे वादा किया था कि मैं अपनी डायरी पर शाम को वापस लौटूँगा। अब, नहाने के बाद, मैं अपना वादा पूरा कर रहा हूँ। मैं सुधर चुका हूँ, क्‍योंकि मैं तुम्‍हारे ‘‘निर्देशों’’ का कडा़ई से पालन कर रहा हूँ। ठीक है, उस रूकावट के बाद की घटनाऍ लिख रहा हूँ।

10 बजे से 12.30 बजे तक मैं पढ़ता रहा। गाने सुनने के लिये एक छोटा सा विश्राम लिया। एक बजे लंच खाया और अपने आपको तनाव मुक्‍त रखा, ‘‘कैरम’’ के दो गेम अपने स्‍वदेशी भाइयों के साथ खेलकर। 2 बजे से 4.30 बजे तक बिस्‍तर में था (मेरा प्रमुख शौक है - सोना)। जब तक मैं उठ नहीं गया, सोम्‍मार्ट सुबह से लेकर अब तक परीक्षा के लिये नोट्स पढ़ रहा था। प्रयूण केले लेकर आया। हमने केले खाए और तब वह सोम्‍मार्ट को चाय पीने और कुछ बात करने के लिये बाहर ले गया। कमरे में मैं अकेला रह गया। मैंने प्‍लेट और बर्तन धोया और फिर ऊपर छत पर कपड़े लेने गया जो मैंने सुबह सूखने के लिये फैलाए थे। नहाने से पहले थोड़ी कसरत की। जब मैं बिस्‍तर पर लेटा था मैंने पढा़ई से थोड़ी राहत पाने के लिये एक लेख पढा़ – ‘‘अपनी धारणाओं को बेचने के दस तरीके’’। अगर तुम इजाज़त दो तो मैं तुम्‍हें वे तरीके बता सकता हूँ।

दस तरीके – अपनी धारणाओं को बेचने केः 

  1. अपनी धारणा की सावधानी से योजना बनाऍ,
  2. उसे भली भॉति समझाऍ;
  3. सही समय निश्चित करें,
  4. प्रस्‍तुतीकरण बढि़या हो,
  5. इसे विश्‍वसनीय बनाएँ,
  6. सही निर्णय लें,
  7. लोगों का सहभाग आमंत्रित करें,
  8. परखने का मौका दें,
  9. नयापन रखें
  10. दृढ़ रहें

अगर परिस्थिति की माँग हो, तो ये हमारे लिए उपयोगी हो सकते हैं। कृपया मुझे ‘‘कोरा सिध्‍दान्‍तवादी’’ न समझ बैठना।

करीब-करीब डिनर का समय हो गया है। मैं डिनर के लिये थोडा़ विश्राम लेता हूँ। यह आज की डायरी का अन्‍त है। अगर तुम थक न गई हो तो प्‍लीज़ ‘‘जनवरी को अश्रुपूरित बिदाई’’ देख लेना – पन्‍ना पलट कर, जो मैं सोने से पहले लिखने वाला हूँ। बाय, मेरी जान।

जनवरी को अश्रुपूरित बिदाई

प्रिये! जनवरी बस खत्‍म हो रहा है। वक्‍त कैसे गुजर जाता है! क्‍या तुम्‍हें याद है कि हम दोनों एक दूसरे को कितने समय से जानते है? क्‍या तुम्‍हें याद है कि हम पहली बार कैसे मिले थे? हम खयालों में उस दिन को याद करें जब हम पहली बार मिले थे और कल्‍पना करें कि हमने वक़्त कैसे गुजारा। क्‍या हम अपनी जिन्‍दगी को और अधिक सार्थक तथा और अधिक संतुष्‍ट बना सकते हैं? ‘‘प्‍यार’’ लब्‍ज़ के हमारे लिये मायने क्‍या हैं? इन सभी सवालों पर गहराई से सोचना, प्‍लीज, और भविष्‍य के बारे में योजना बनाना। हम, निश्‍चय ही, अपनी जिन्‍दगी को बेहद सफल बनाएँगे।

मगर याद रखो। सार्थक बने रहने के लिये यह जरूरी है कि प्यार निरंतर बढता रहे, बडा़ होता रहे, परिपक्व होता रहे। हमें अपने संबंधों में कई प्रकार की विविधता और जोश लाना होगा, जिससे यह हमेशा नया प्रतीत होता रहे, चाहे हम कितने ही बड़े हो जाएँ। लगभग उन्‍नीस शताब्दियों से पहले एक रोमन वैचारिक ने कहा था, ‘‘जब तक विविधता न हो, कोई भी खुशी चिरंतन नहीं रह सकती।’’ इसे हम हमेशा याद रखें, अपनी नियोजित जिन्‍दगी की राह पर बढ़ते रहें, और दुनिया के यथार्थ का सामना करते रहें। सफलता हमारा इंतजार कर रही है, बस हमारे ही कमरे के अगले कोने में। अलबिदा – जनवरी 82 – वह महीना जब मैं मन में आशा लिए अपने प्‍यार के वापस लौटने का इंतजार करता रहा।



 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Si poteris vere, si minus apta tamen (Latin): संभव हो तो मुझे सत्‍य बताओ, यदि न हो तो वह करो जो सबसे अच्‍छा हो – ओविद 43BC-AD C 17

बाईसवाँ दिन

फरवरी १,१९८२

 

फरवरी ८२ की पहली सुबह है, और बाहर घना कोहरा छाया है। जब मैं डायरी लिख रहा हूँ तो सूरज इस निराश दुनिया को रोशन करने के लिये चमक रहा है। आज मैं बहुत उत्‍सुक हूँ कुछ रचनात्‍मक, कुछ जोशभरा काम करने के लिये। वक्‍त आ गया है कि इसे कर ही लूँ। जिन्‍दगी बहुत छोटी है। मैं अब और सोकर इसे नहीं गुजारुँगा। जैसा कि एक ब्रिटिश डॉक्‍टर ने कहा है कि सबसे ज्‍यादा तन्‍दुरूस्‍त, प्रसन्न, सफल और विद्वान व्‍यक्ति वे होते हैं जो कम से कम सोते हैं, करीब पाँच घण्‍टे हर रात। ‘‘इससे ज्‍यादा’’, वह कहता है, ‘बुरी आदत है और यह दिमाग को सुस्‍त बना देती है।हमें अपने दिमाग को सजीव और कार्यशील रखने के लिये खुद को सक्रिय एवम् सजीव रखना होगा। अच्‍छा कहा है। अब से मैं एक नई शुरूआत करुँगा। देखें, कब तक निभा पाता हूँ। ठीक है, डायरी की ओर चलूँ।

सुबह 10.30 बजे मैंने अपना सक्रिय कार्यकलाप शुरू किया लिंग्विस्टिक्‍स लाइब्रेरी जाकर जहाँ से मुझे एक किताब लेनी थी, फिर मैं नोटिस बोर्ड देखने गया। सेमिनार रूम के सामने अंजु और राकेश (मेरे सहपाठी) गपशप कर रहे थे। मैंने मुस्‍कुराकर उनसेहैलोकहा। अंजु ने नोटिस बोर्ड की ओर इशारा करते हुए कहा –

‘‘नोटिस बोर्ड देखो, डेविड’’

‘‘किस बारे में है?’’ मैंने उससे पूछा।

खुद ही देख लो,’ उसने सलाह दी।

मैंने नोटिस बोर्ड पर नजर दौडा़ई और मुझे दो नोटिस नजर आए; एक महत्‍वपूर्ण है, दूसरा-दिलचस्‍प महत्‍वपूर्ण नोटिस इस बारे में है कि एम०फिल कमिटी की मीटिंग ३ फरबरी को होने वाली है, जिसमें शोध-विषयों को अंतिम स्‍वीकृति दी जाएगी। दिलचस्‍प नोटिस उस पिकनिक के बारे में है जिसका आयोजन डिपार्टमेन्‍ट ने किया है। जब मैंने उस धनराशि की ओर देखा जो हमें खर्च करनी पड़ेगी, तो मेरी दिलचस्‍पी खत्‍म हो गई। २० रूपये। मैं अपने आप को और अधिक आर्थिक परेशानी में नहीं डालूँगा।

मैं डिपार्टमेन्‍ट से निकलकर लाइब्रेरी सायन्‍स डिपार्टमेन्‍ट गया मि० बासित को याद दिलाने कि उन्‍हें खत लिखना है। वे वहाँ नही थे। उनका कमरा बन्‍द था। मैंने देखा कि सुन्‍दरम मैडम क्‍लास में लेक्चर दे रही थी। मैंने सोचा कि उन्‍हें याद दिलाने की जरूरत नहीं है। शायद उन्‍होंने तुम्‍हें लिख भी दिया हो। मैं उन्‍हें तंग नहीं करना चाहता। तो मैं तुम्‍हारे डिपार्टमेन्‍ट से मिलकर आराम से मिलने पहुँचा। वह सिर ढाँककर सो रहा था। मैंने उसे उठाया जिससे वह लंच के लिये तैयार हो जाए। आचन च्‍युएन एक स्‍पेशल मीटिंग के लिये बुलाने आया जो फरवरी में होने वाली थी और वह जोर दे रहा था कि हम फरवरी में अशोक बुद्ध मिशन में अन्‍य बौद्धों के साथ माघ पूजा का आयोजन करें। मैंने उनके साथ कुछ समय बिताया और फिर कुछ कागज खरीदने को-ऑपरेटिव स्‍टोर गया। सोम्रांग भी  वहाँ फाइल्‍स खरीद रहा था। मैंने उससे एक रूपया उधार लिया, क्‍योंकि मेरे पास बिल चुकाने के लिये पर्याप्‍त पैसे नहीं है। जब मैं बाहर निकला तो इत्तेफाक से मिसेज कश्‍यप से मुलाकात हो गई। मैंने उन्‍हें ‘‘नमस्ते’’ कहा और विनती की कि वे मि० काश्‍यप को तुम्‍हें लिखने की याद दिला दें, यदि वे तुम्‍हारे दिल्‍ली पहुँचने से पहले ऐसा करना चाहे तो।

मैं लंच के लिये होस्‍टल वापस आया और लंच के बाद वुथिपोंग के कमरे में उससे थोड़ी-सी बातें करने गया। वह अभी तक ‘‘वो ही’’ वुथिपोंग है जिसे अपना जीवन संतुष्टि लायक नहीं प्र‍तीत होता। वह बेकार ही महान कल्‍पनाओं के चाँदी के रथ में सवार होकर स्‍वर्ग से उतरने की राह देख रहा है, जिसे एक विजयी, मुस्कुराती काव्‍य-देवता हाँक रही है। मुझे ऐसा लगता है कि अगर वह छोटी-छोटी चीजों – दर्जनों, सैकडो और कभी कभी हजारों छोटी-मोटी सूचनाओं, विचारों, और घटनाओं को, जो उसके दिमाग में भरी पड़ी हैं, अनदेखा न करे तो वह बेशक, अपने समय का महान आदमी है। हमारी ये मीटिंग बस रचना का ऐवज बन गई – खासतौर से गप-शप, मौसम के बारे में बेकार की बातें, या बकवास, जो खामोशी की खाई को पाटने के लिये जा रही थी। मगर फिर भी, मुझे उसका साथ देना अच्‍छा लगा। उसने कॉफी बनाई और महेश ने चपाती और यह थी समाप्ति ‘‘हमारे वक़्त’’ की। वह मेरे साथ होस्‍टेल आया। हम जी भर कर पिंग-पॉग खेले। उसने गरम पानी से स्‍नान किया और फिर अपने ‘‘काम’’ को करने चल पडा़। जब मैं खेलने के लिये अपनी बारी का इंतजार कर रहा था, तो मैं पोस्‍टमैन द्वारा अभी-अभी लाए गए खत देखने चला गया। वाह, क्‍या किस्‍मत है। मुझे तुम्‍हारा खत मिला। यह आश्‍चर्य की बात है। मुझे आज इसकी उम्‍मीद नहीं थी। बहुत-बहुत धन्‍यवाद, प्रिये, कि तुम मुझे भूली नहीं हो। अब मैं खुश हूँ! 

आर रात को, डिनर से पहले और डिनर करते समय बिजली आती-जाती रही। हमने मोमबत्तियों की रोशनी में डिनर खाया। मैं कल्‍पना कर रहा हूँ: कितना रोमांटिक था । 

अच्‍छा, मेरी जान, अब मैं डायरी लिखना बन्‍द करता हूँ और बचे हुए समय में तुम्‍हारे खत का जवाब लिखूंगा। गुड नाईट!












*Dilige et quod vis fac (Latin): प्‍यार करो और वह सब करो जो तुम चाहते हो – सेंट ऑगस्टीन AD C 354-430

तेईसवॉ दिन

फरवरी २,१९८२

तुमसे दुबारा मिलकर बहुत अच्‍छा लगा! यकीन करो या न करो, कर्मचारी-हड़ताल फिर से शुरू हो गई है। यह अभी भी चल रही है। मैं इन कर्मचारियों के बीच निरीक्षक “Observant” की तरह बैठ गया। कृपया अंग्रेजी शब्‍द Observant में से “Ob” मत हटाना, वर्ना वह “servant” बन जाएगा ! मैं मूँगफली छीलता रहा और भाषणों को १५ मिनट तक सुनता रहा। मुझे कौन सी चीज यहाँ खींच लाई है? तुम ये सवाल पूछ सकती हो। ये, बस, दिलचस्‍पी की बात है, डार्लिंग, कल रात को मैंने तुम्‍हारे खत का जवाब दे दिया। यह एक अ‍कस्‍मात् प्रतिक्रिया थी, क्‍योंकि तुमने मुझे बड़ी देर से लिखा था। सुबह 10.00 बजे मैं पोस्‍ट ऑफिस गया और टिकट लगा कर उसे पोस्‍ट बॉक्‍स में डाल दिया। फिर मैं होस्‍टल के सामने वाले प्‍ले-ग्राऊण्‍उ पर धूप में बैठने के लिये आया, साथ में किताब थी जो मैं पढ़ रहा थाआधुनिक भाषा विज्ञान के अर्थ विचार का परिचय’ (Introduction to contemporary Linguistic semantics) – लेखक जॉर्ज एल० डिल्‍लोन, बड़ी दिलचस्‍प किताब है। मैंने दो वाक्यों  A और B के बीच का अन्‍तर ढूँढा।

  A. जॉन अपनी बीवी को इसलिये नहीं मारता, क्‍योंकि वह उसे प्‍यार करता है।

  B. वह उसे प्‍यार करता है, जॉन अपनी बीवी को नहीं मारता

(‘‘क्‍योंकि’’ के स्‍थान पर ध्‍यान दो)।

वाक्‍य A दो प्रकार से समझा जा सकता है (सन्‍देहास्‍पद), जो ये हैः 

  1. वह उसे मारता है, मगर किसी और कारण से 
  2. वह उसे नहीं मारता – क्‍योंकि वह उसे प्‍यार करता है।

जब्‍कि वाक्‍य B केवल एक ही अर्थ को प्रदर्शित करता है (असन्‍देहास्‍पद), और वह ये किः

  1. वह उसे नहीं मारता – क्‍योंकि वह उसे प्‍यार करता है।

फरक समझ में आया? मेरे अंग्रेजी के इस नए ज्ञान को मेरे साथ बाँटो।

जब मैं पढ़ रहा था तो मैंने तुम्‍हारे डिपार्टमेन्‍ट के दो लोगों को देखा (क्‍लर्क ऑफिसर) जो लॉन पर और कर्मचारियों के साथ बैठे थे। वे अपना दिल बहलाने के लिये गा रहे थे। वे हड़ताल पर थे। फिर, मैंने उन्‍हें पहचानने के अंदाज में उनकी ओर देखकर हाथ हिलाया। उन्‍होंने भी जवाब में हाथ हिलाया, जब मैं मुडा़ तो मैंने पुलिस के तीन सिपाहियों को अपनी ओर आते देखा।

‘‘तीन नंबर गेट कौन सा है, भाई,’’ उन्‍होंने मुझसे अंग्रेजी मिश्रीत हिन्‍दी में पूछा।

मैंने उन्‍हें रास्‍ता बताया और फिर से पढ़ने लगा। जब मैंने एक अध्‍याय पढ़ लिया तो मैं हडताल का निरीक्षण करने के लिये उत्‍सुक हो गया, जो वाइस चान्‍सलर बिल्डिंग के बाहर युनिवर्सिटी गार्डन को दहला रही है। मैं जिन्‍दगी की खोज-बीन करना और अपनी दिलचस्‍पी का दायरा बढा़ना चाहता था। मैं उस दायरे में शामिल हो गया और हड़ताल का निरीक्षण करने लगा। करीब २५ महिलाये थी वहाँ। उनमें से अधिकतर तो बुनाई कर रही थी। उन्‍हें हड़ताल में कम दिलचस्‍पी थी। वे सिर्फ हड़तालियों की संख्‍या बढा़ने आई थीं। बस, इतना ही! जहाँ तक आदमियों का सवाल है, वे ताश खेल रहे थे, अपने उकताने वाले खेल – हड़ताल का मजा ले रहे थे। पन्‍द्रह प्रतिशत लोग सचमुच में हड़ताल में दिलचस्‍पी ले रहे थे। मेरे निरीक्षण के दौरान मैंने कुछ मूँगफली खरीदी, जो खूब धडल्‍ले से वहाँ बिक रही थी, और मेरे पास बैठे आदमी को पेश की। ध्यान से भाषण सुनने के बदले हम मूँगफलियॉ छील रहे थे और मजा़क कर रहे थे। यह बस खेल का ही एक हिस्‍सा है – मतलब, मेरा निरीक्षण। 12.30 बजे मैं हड़ताल छोड़कर लंच लेने गया और कुछ देर और पढ़ता रहा।

1.30 बजे मैं म्‍युआन से किताब लेने गया। उसका कमरा अभी भी बन्‍द था। वह लंच के लिये ग्‍वेयर हॉल वापस नहीं आया था। मैंने बून्‍मी के कमरे में उसे ढूँढा। वह मुझे वहाँ भी नहीं मिला। बल्कि, वहाँ मुझे बून्मी और नोनग्‍लाक मिले। वे साथ में लंच ले रहे थे। उन्‍होंने औपचारिकता से मुझे भी उनका साथ देने को कहा। मना करने का कोई कारण नहीं मिला, बल्कि यह आकस्मिक दान स्‍वीकार कर लिया। जब हम लंच खत्‍म कर ही रहे थे, म्‍युआन अन्‍दर आया। इसलिये उसे बचा-खुचा खाना दिया गया। दुहरे लंच के बाद, मैं म्‍युआन के कमरे में किताब ढूँढने गया। मु्झे अपनी तलाश में सफलता मिली और मैं अपने कमरे में इसका फायदा उठाने आ गया।

जब मैं अपने पढ़े हुए अध्‍याय के मुख्‍य बिन्‍दु कागज पर नोट कर रहा था तो सोम्‍मार्ट आया। वह थका हुआ और भूखा लग रहा था। मगर उसकी भूख शांत करने के लिये कमरे में खाने को कुछ था ही नहीं। उसने पन्‍द्रह मिनट आराम किया और फिर पढ़ना शुरू कर दिया। मैं उसका दिमाग पढा़ई से हटाने की कोशिश कर रहा था, और मैंने उससे कहा कि सोम्नियेंग और उसके परिवार का हाल पूछने के लिये मेरे साथ चले (मैंने सुना था कि सोम्नियेंग को बुखार था)।

हम 5.30 बजे शाम को उसके यहाँ पहुँचे। घर पर कोई भी नहीं था। हम वापस लौटने लगे तो किंग्‍स-वे पर हमें सोम्नियेंग मिला, जो घर लौट रहा था। हम उसके साथ वापस लौट आये। उसका बुखार उतर गया लगता था। बर्मी डॉक्‍टर सोम्नियेंग के लिये एक बिस्‍तर लाया था मगर वह उसे गेट पर रखकर वापस क्लिनिक चला गया। मैंने उस भारी बिस्‍तर को उठाने में मदद की।

सोम्‍मार्ट ने दरवाजे का ताला खोला। हमने थोड़ी सी बातें की। मैंने फल और पानी लिया, सोम्‍मार्ट ने भी ऐसा ही किया। इसके कुछ ही देर बाद पू, कोप और ओड वापस आए। उन्‍होंने हमें अपने यहाँ डिनर पर आमंत्रित किया। हमने धन्‍यवाद कहते हुए इनकार कर दिया। हम उन्‍हें छोड़कर अपने होस्‍टेल लौटे, हमेशा की तरह दाल, सब्‍जी और चपाती खाने। असल में हम उनका खयाल रख रहे थे, इसीलिये हम उनका निमन्‍त्रण स्‍वीकार नहीं कर सके। तुम्‍हारी गैरहाजिरी में मैं ओने से मिलने नहीं आया।

मुझे याद है कि मैं एक बार टेप-रेकार्डर तथा कुछ अन्‍य चीजें लेने उसके पास गया था। बस वही एक अवसर था, जिसे ‘‘मुलाकात’’ नहीं कहा जा सकता। उससे न मिलने का कारण सिर्फ यही था कि मैं व्‍यस्‍त था, मैं अपने काम में लगा था, और वह अपने काम में। हम अलग तरह के बने हैं। बस इतना ही। मुझे, प्‍लीज दोष मत देना कि मैं ओने के सामने पेश नहीं हुआ, जैसा कि तुम चाहती थी। यह मुझसे होगा ही नहीं।

ठीक है। अब, मेरी जान, मैं लिखना बन्‍द कर रहा हूँ। साम्रोंग पढा़ई में मेरी मदद माँगने आया है। मुझे औरों के लिये भी कुछ करना चाहिये। गुड नाइट। जल्‍दी ही तुमसे मिलूँगा, डार्लिग।











 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Silentium mulieri praestat ornatum (Latin): खामोशी औरत का सबसे सुन्‍दर आभूषण है – एनोन

चौबीसवाँ दिन

फरवरी ३,१९८२

 

कितना परिवर्तन! ज़रास्‍टेट्समेनके शीर्षक तो देखो। सबसे बडा़ शीर्षक हैः टेलिफोन तथा डाक दरों में भारी वृद्धि। यह है उस खबर का सारांश।

नई दिल्‍ली। मंगलवार – सरकार ने आज डाक तार और टेलिफोन की दरों में भारी वृद्धि की घोषणा की, जिससे खजाने को १०० करोड़ की आय होगी।

यह वृद्धि, जिसके अंतर्गत रजिस्‍टर्ड पार्सल/पत्र, मनी-ऑर्डर, टेलिग्राम, फोनोग्राम, टेलेक्स एवं टेलिफोन का किराया शामिल है १ मार्च से लागू होगी।

दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है। हर चीज़ अपनी अपनी माँग पूरी करने की दिशा में बढ़ रही है। जिन्‍दगी के बारे में भी यही नियम लागू होता है। हम इससे बच नहीं सकते, है ना?

कल रात को दस बजे बिजली चली गई। अभी तक नहीं आई है। मैं कुछ भी नहीं पढ़ पाया। भरपूर नींद ली – मीठे सपनों के साथ। मैंने सपने में देखा कि तुम पालम एअरपोर्ट पर हवाई जहाज से उतर रही हो। तुम काफी तन्‍दुरूस्‍त, कुछ मोटी नज़र आ रही हो। मैंने मुस्कुरा कर अपना प्‍यार जाहिर किया, जवाब में तुमने भी मुस्‍कुराहट बिखेरी। तुम मेरी बाँहों में दौड़ी चली आई। मैंने कसकर तुम्‍हारा आलिंगन किया। जब मैं दिल्‍ली में तुम्‍हारा स्‍वागत करते हुए तुम्‍हारा चुंबन लेने ही वाला था तो नींद खुल गई, सपना खत्‍म हो गया।

मगर मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है। ये तो बस, सपना था, वास्‍तविक जीवन थोड़े ही था। हमारी जिन्‍दगी ज्‍यादा मूल्‍यवान और ज्‍यादा अर्थपूर्ण है बनिस्‍बत किसी सपने के। फिर भी, सपने में मैंने जो भी देखा वह इस बात की याद दिला रहा था कि ‘‘तुम अभी भी मेरे दिल में हो।’’ क्‍या इससे बढ़कर कोई और बात है? मेरे खयाल में तो नहीं है।

आज 12 बजे मुझे एम०फिल० कमिटी के सामने इन्‍टरव्‍यू में बुलाया गया था अपने शोध कार्य के लिये विषय का चयन करने। मैं 30 मिनट पहले ही डिपार्टमेंट पहुँचा। इन्‍टरव्‍यू 1.00 बजे तक के लिये स्‍थगित हो गया। मैं डिपार्टमेन्‍टल लाइब्रेरी में इंतजार कर रहा था। जब इन्‍टरव्‍यू का पुनर्निधारित समय आया, तो हम (एम०फिल० के विद्यार्थी) सेमिनार रूम में एकत्रित होकर अपनी अपनी बारी का इंतजार करने लगे। मुझे चौथे नंबर पर बुलाया गया। पहले मैं काफी नर्वस था, मगर जब मेरा नंबर आया तो मैं काफी तनाव-मुक्‍त और आत्‍म विश्‍वास से भरपूर था। मुझसे कुछ सवाल पूछे गए जैसे कि मैं कौन से विषय पर काम करना चाहता हूँ और अपना शोध-प्रबंध किस तरह लिखने वाला हूँ। बस, इतना ही। मुझे अपने प्रस्तुतीकरण पर संतोष है। मैं एक और बात कहना चाहता हूँ। इन्टरव्यू शुरू होने से जरा पहले, हम सारे विद्यार्थी बेहद घबराए हुए थे। हर कोई हताश और बेचैन था। कुछ लोगों ने तो इन्‍टरव्‍यू की अच्‍छी खासी तैयारी की थी। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैंने भी थोड़ी-बहुत तैयारी तो की ही थी।

आमतौर से हमारे दिलों में इन्‍टरव्‍यू-बोर्ड के बारे में भयानक गलतफहमियाँ होती है। हम उसे फाँसी का फन्‍दा समझते हैं, जिससे हम दूर ही रहना पसन्‍द करते हैं। मगर ऐसी बात बिल्‍कुल नहीं है। ये तो बस एक ग्रुप होता है अनुभवी व्‍यक्तियों का जो हमसे विचार जानना चाहते हैं, हमारा मार्गदर्शन करना चाहते हैं, और हमारे काम में मदद करना चाहते हैं। हम वस्‍तुएँ हैं और वे हैं – मार्केट। दोनों ही एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं, और एक के बिना दूसरे का अस्त्तिव संभव नहीं है। यह वास्‍तविकता है। उनसे डरने को कोई जरूरत नहीं हैं। वे भी हमारी ही तरह इन्‍सान हैं। उनकी उपस्थिति में स्‍वयं को हीन समझना भी ठीक नहीं है। यही है सफलता की कुंजी।

मैं दोपहर 1.40 बजे डिपार्टमेन्‍ट से निकला। मुझे किरण (लाइब्रेरियन-महिला) मिली। वह हड़ताल पर है। उसने मुझे बताया कि उसने तुम्‍हें लिखा है और खत को कल ही पोस्‍ट किया है। मुझे डर है कि पट्टानी से बैंकाक के लिये निकलने से पहले वह तुम्हें मिलेगा नहीं। मैंने उससे कहा कि मैं तुम्‍हें उसके खत के बारे में बताऊँगा। मगर इस मसले पर सोचने के बाद मैंने ऐसा न करने का निश्‍चय किया। वजह यह है कि मेरे पास पैसे नहीं हैं। बस, इतनी सी बात! मैं होस्‍टेल की ओर लपका ‘‘लेट-लंच’’ लेने के लिये। मगर बहुत जयादा देर हो चुकी थी। खाना नहीं मिला।

मगर किस्‍मत मुझ पर मेहेरबान है। मुझे मेस में मेज़ पर रखी तीन चपातियॉ मिल गई। यही मेरा ‘‘लेट-लंच’’ था। थकावट और भूख के कारण मैं पीठ के बल लेट गया और घंटो तक सोता रहा। जब मैं उठा तो हेमबर्गर मुझसे खाया नहीं गया। मैं कैन्‍टीन गया: ‘‘उधारी पर’’ ऑमलेट खाने और चाय पीने के लिये गया। जब मैं चाय की चुस्कियॉ ले रहा था, मेरी नज़र एक बन्‍दर पर पड़ी जो गुस्‍से में पेड़ को हिला रहा था। मालूम नहीं वह किससे नाराज था। शायद अपनी ‘‘गर्ल फ्रेन्‍ड’’ से। मगर उसे देखने में मजा आ रहा था। मैं इसका इस तरह से आनन्‍द उठाता हूँ। मैंने अपने खाते पर हस्‍ताक्षर किये और थोड़ा बहुत पढ़ने के इरादे से कैन्‍टीन से निकल कर प्‍ले-ग्राउण्‍ड पहुँचा। मैंने देखा कि प्रयूण मैदान के बीच में बैठा कुछ पढ़ रहा है। मैंने उसकी पढ़ा़ई में दखल नहीं डाला। मैं अपनी पढा़ई करता रहा। जब मैंने सिर उठाकर देखा तो वह शायद हवा में गायब हो गया था। मैं, बहरहाल, पढ़ता रहा। ईरानी लड़की अपने आपको ‘‘फिट’’ रखने के लिये ग्राउण्‍ड का चक्‍कर लगा रही है। कुछ भारतीय भी वही कर रहे है। मुझे भी वही करने की प्रेरणा हुई। मैंने ग्राउण्‍ड के दो चक्‍कर लगाए और जमीन पर गिर पडा़। मैं बेहद थका हुआ था। सर्दियों में यह पहली बार था, जब मैंने दौड़ने की कसरत की थी। 

अब मैं थोडा बहुत चुस्‍त हो गया हूँ। मैं शेखी नहीं मार रहा हूँ, मुझ पर यकीन करो! दौड़ने की कसरत के बाद मैं होस्‍टेल के भीतर गया, दो गेम कैरम के खेले और एक गेम पिंग-पोंग का। और यह अन्‍त था मेरे ‘‘कीप-फिट’’ का। अब मैं ज्‍यादा तन्‍दुरूरत लगता हूँ। तन्‍दुरूस्‍ती दौलत से हजार गुना मूल्‍यवान हैं। या फिर दूसरी कहावत हैः स्‍वस्‍थ शरीर में स्‍वस्‍थ दिमाग रहता है। ठीक है, प्‍यारी, अब मैं डिनर के लिये डायरी रोकता हूँ। बाय, स्‍वीट हार्ट।



*Adhebenda in iocanda moderatio (Latin): किसी मजा़क को लम्‍बा न खींचो – सिर्सरा 106-43 BC

पच्‍चीसवाँ दिन

फरवरी ४,१९८२

 

आज का दिन उत्‍साह से भरपूर है। मुझे सकारात्‍मक, प्रसन्‍न और आशावादी होना चाहिये हर चीज के बारे मेः घर में, काम पर, क्‍लास में, मेरे वर्तमान काम के बारे में – हर जगह! दिन भर मुझे नकारात्‍मक विचारों को अपने पास नहीं फटकने देना है, झगडा़ नहीं करना है, क्रोध नहीं करना है। उत्‍साह तेज गति वाला ईंधन है और नकारात्‍मक सोच डी०डी०टी० है मेरी कल्‍पना के लिये! मूल कारण यह है किः अगर हमें जीवन का आनन्‍द उठाना है तो उसके लिये उचित समय अभी है – न कि कल, न कि अगला साल, न कि मृत्‍य पश्‍चात् का कोई अन्‍य जीवन।

यह है मेरी आज की डायरी की प्रस्‍तावना। यह बड़ी शुभ बात थी कि सुबह-सुबह वुथिपोंग हमारे कमरे में आया था। वह ये पूछने आया था कि क्‍या मुझे तुम्‍हारा कोई खत मिला है। उसने एअरपोर्ट पर तुम्‍हारा स्‍वागत करने की इच्‍छा प्र‍कट की यदि उसे तुम्‍हारी वापसी की तारीख का पता चल जाये। हमने पिंग-पोंग का एक गेम खेला और फिर वह अपनी क्‍लास के लिये चला गया।

मैं कॉमन रूम से बाहर आने ही वाला था कि सिस्‍टर जूलिया (ख्रिश्‍चन) भीतर आई एक ईश्‍वरीय संदेश लेकर, उसने खास तौर से हमें (अनुपम, सोम्‍मार्ट और मैं) आमंत्रित किया लाडक बुध्‍द विहार में शाम को होने वाली अंतरधर्मीय प्रार्थना-सभा में। अनुपम (भारतीय लड़का) होस्‍टल से बाहर था, सोम्‍मार्ट कहीं और था, वह उसे ढूँढ़ नहीं पाई थी। मैंने गेस्‍ट रूम में उसका स्‍वागत किया। उसने मुझे इस पवित्र मिशन के बारे में जानकारी दी, मुझे इस कार्य कलाप में हिस्‍सा लेने के लिए कहा, और इस शुभ समाचार को धार्मिक विचारों वाले लोगों में फैलाने को कहा – पी०जी० होस्‍टेल में, ग्‍वेयर हॉल में और जुबिली हॉल में। मैंने अपना धार्मिक कर्त्‍तव्‍य पूरा किया इन तीनों होस्‍टेलों में नोटिस लगाकर। सोम्‍मार्ट ने नोटिस लिखने में मेरी सहायता की और अपनी क्‍लास में चला गया। मेरे अपने होस्‍टेल (पी०जी०मेन्‍स) में, मुझे थोड़ी कठिनाई हुई, मगर ग्‍वेयर हॉल में मै गलत आदमी के पास, ऑफिस-सेक्‍शन के एक कलर्क के पास, पहुँच गया।

पहले तो उसने बिना किसी कारण के सहयोग देने से इनकार कर दिया। मैंने उसे मनाया और उसके ‘‘उछलते दिमाग’’ को शांत किया, उसे अपनी ओर मिला लिया मगर वह फिर भी हिचकिचा रहा था कि इसे करे कैसे। वह कुछ इस तरह बड़बडा़ रहा थाः नोटिस लगाने से पहले इसे किसी रेजिडेन्‍ट-टयूटर द्वारा हस्‍ताक्षरित होना जरूरी है। तब जाकर मुझे परिस्थिति समझ में आई। वह मेरे लिये कुछ नहीं कर सकेगा। मैंने अपना प्‍लान बदल दिया। मैं यूनियन-प्रसिडेन्‍ट (मि० प्रवीण) के पास गया, जिसे मै जानता हूँ और इस नोटिस को लगाने में उसकी मदद मांगी। यहाँ बात हल हो गई। कोई कठिनाई नहीं हुई, जरा सी भी नहीं। उसने चौकीदार से कहा कि नोटिस को मेस के गेट पर लगा दे। इतना आसान था ! मैं आगे चला, जुबिली हॉल की ओर इस उम्‍मीद से कि प्रयून से मदद ले लॅूगा। सौभाग्‍यवश, मुझे वहाँ मणिपुरी दोस्‍त मिल गए। मैंने उनसे पूछा कि इस नोटिस को कहाँ लगा सकता हूँ। उन्‍होंने मेरी सहायता की। मैं अपने होस्‍टल वापस गया कुछ रचनात्‍मक और उत्‍साहपूर्ण काम करने। मैं ग्‍वेयर हॉल से होकर वापस नहीं आया।

मैं दूसरे रास्‍ते से आया। मैंने सिस्‍टर जूलिया को उस भाग के पी०जी० वीमेन्‍स, मिराण्‍डा हाऊस और अन्‍य होस्‍टलो से आते देखा। मैंने उसे नहीं बताया कि मैंन क्‍या-क्‍या काम किया। यह मेरे लिये काफी दूर है। मैं अपने कमरे में वापस लौटा। पन्‍द्रह मिनट बाद मैं कमरे में एक कुर्सी में धँस गया। दो होस्‍टेल-कर्मचारी (ओम प्रकाश और उसका दोस्‍त) मेरे पास आए विवाह-पूर्व सेक्‍स समस्‍या का समाधान पूछने। उसकी कौन मदद कर सकता है (ओम प्रकाश के दोस्‍त की)! दूसरी तरह से कहूँ तो वे मुझे शायद कोई ‘‘विवाह-समुपदेशक’’ समझते हैं, जो उनकी रोमान्टिक समस्‍याओं को सुलझा देगा। 

‘‘हमारे सामने एक समस्‍या है, सर,’’ ओम प्रकाश ने कहा।

‘‘क्‍या समस्‍या है?’’ मैंने पूछा।

तब उसने अपने गरीब दोस्‍त की पूरी कहानी सुनाई,

‘‘मेरे दोस्‍त ने ...वो...संबंध...बना लिये...अपनी गर्लफ्रेन्‍ड के साथ। अब उसको बच्‍चा होने वाला है। यह अभी बाप नहीं बनना चाहता। इसे क्‍या करना चाहिए?’’ गर्भपात के लिये कोई दवाई जानते हैं? प्‍लीज इसे बताईये।

मैं बस हंसने की वाला था। ‘‘तुम मुझे समझते क्‍या हो?’’ मैं कोई डॉक्‍टर नही हूँ, न ही विवाह-समुपदेशक।

मगर दुबारा सोचने पर मुझे भी उसके बारे में चिन्‍ता ही हुई। वे मेरे पास मदद मॉगने आए थे और मुझे उनको निराश नहीं करना चाहिए था, मैंने अपने आप में सोचा। फिर मैंने उनसे दो में से एक काम करने को कहा।

  1. किसी डॉक्‍टर से मिलकर सलाह ले
  2. शादी कर ले और पितृत्‍व की जिम्‍मेदारी निभाए

मालूम नहीं मेरी सलाह का उन पर क्‍या असर होगा। मगर मैं उनके लिये इतना ही कर सकता था। भगवान उन्‍हें आर्शीवाद दे! मैं बेवकूफ ही सही।

मुझ पर यकीन करो, स्‍वीट हार्ट, आज मैंने एक बडा़ काम किया है। मैंने अंतर-धार्मिक प्रार्थना सभा में हिस्‍सा लिया जो लाडक बुध्‍द विहार में (ISBT के पास) आयोजित की गई थी। अकेला नहीं गया। मैं वुथिपोंग और महेश को भी साथ ले गया। हम वहाँ समय पर पहुँच गए (5.30 बजे) करीब चालीस लोग हॉल में मौजूद थे। प्रार्थना-हॉल के प्रदेश द्वार पर हमारा स्‍वागत किया गया और सिस्‍टर जूलिया एवम् फादर विन्‍सेन्‍ट (चेयरमेन) ने हमें अपनी सीटें दिखाई। वहाँ जो विभिन्‍न धर्मो और संस्‍कृतियों से आए थेः बौद्ध, ख्रिश्‍चन, हिन्‍दू, उनमें सबसे महत्‍वपूर्ण व्‍यक्ति थे फादर विन्‍सेन्‍ट, लामा लोबसांग, डा०श्रीवास्‍तव एवं दो अन्‍य (मुझे उनके नाम नहीं मालूम)। सभा का आयोजन एक चौक मं किया गया था। हम एक दूसरे के आमने-सामने बैठे।

हमारी सभा का आरंभ हुआ फादर विन्‍सेन्‍ट के उद्घाटन भाषण से, जिसके बाद विश्‍व शांति के लिये धार्मिक गीत प्रस्‍तुत किये गए, एक ख्रिश्‍चन सिस्‍टर द्वारा गाया गया गीत बहुत सुरीला था और श्रोतओं पर उसने बहुत असर किया। मुझे उसके गीत ने बहुत प्रभावित किया। फिर हमने सभा का समापन विश्‍व-शांति में धार्मिक योगदान पर चर्चा से किया और सबसे अन्‍त में हमने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच हथियारों की बढ़ती प्रतिद्वन्द्विता पर चिन्‍ता प्रकट की। हम अपनी चिन्‍ता को किस प्रकार प्रकट करें, इस बारे में कुछ सुझाव दिए गए। कुछ लोगों ने जो़र देकर कहा कि भारतीय प्रधानमन्‍त्री इन्दिरा गांधी को एक पत्र भेजा जाए। और लोगों ने कहा कि इसे संयुक्‍त राष्‍ट्र को भेजना बेहतर होगा। मगर अन्‍त में हम इस नतीजे पर पहुँचे कि दोनों प्रस्‍ताव मान लिये जाएं। सभा के समापन से पूर्व चर्चा के अगले विषय को निश्च्ति किया गया। विषय है ‘‘इतने सारे धर्म, इतना सारा दुःख’’, जब सभा समाप्‍त हो गई तो सिस्‍टर जूलिया ने चेयरमेन, फादर विन्‍सेन्‍ट से मेरा परिचय करवाया। वुथिपोंग और महेश हॉल के बाहर मेरा इंतजार कर रहे थे। फिर हम तीमारपुर गए जहाँ वुथिपोंग ने मोमबत्‍ती जलाई।

हम बड़े अचरज में पड़ गए कि हमारी मेज पर डिनर रखा था। साथ में संदेश था

मेरे प्‍यारे फी-माइ,

मैं डिनर के लिये यहाँ आई हूँ। बाहर कडा़के की ठण्‍ड है। मैं तुम्‍हारे और फी डेविड (मेरा उपनाम) के वापस आने तक इन्‍तजा़र नहीं कर सकती। ये डिनर रख रही हूँ। ढेर सारे प्यार और सम्‍मान के साथ,

ओने

हमने ओने का डिनर बहुत पसन्‍द किया और उसकी हमारे बारे में चिन्‍ता की भी सराहना की। मैंने वुथिपोंग के साथ डिनर खाया, फिर एक कप कॉफी पी। वुथिपोंग ने डिनर की यह कहते हुए प्रशंसा की कि ऐसा लज्‍जतदार खाना उसने पिछले कई सालों में नहीं खाया है। मैंने भी सहमति दर्शाई। मुख्‍य बात है कि ओने वह लड़की है जो उसके दिल में है। काश, ओने भी उसे प्‍यार कर सकती। मगर उसकी जिन्‍दगी इतनी भाग्‍य-निर्णायक है कि यह प्‍यार का नहीं, बल्कि भाग्‍य का मामला है। मैं ईश्‍वर से प्रार्थना करुँगा कि वह अपनी लगन और कोशिश में सफल हो। मैं अपने होस्‍टेल रात के 9 बजे पहुँचा। सोम्‍मार्ट अपनी पढा़ई में मगन था।

उसने मेरे लिये दो केले रखे थे। मुझे अपनी लन्‍दन की एक मित्र का पत्र-बधाई कार्ड मिला। ये बडा़ लाजवाब कार्ड है। आज तक मुझे ऐसा कार्ड नहीं मिला था। यह एक बन्‍दर का स्प्रिंग-बॉक्‍स है। जब तुम इसे खोलते हो तो बन्‍दर तुम्‍हारी तरफ देखकर गुस्‍से से मुस्‍कुराता है। उसका शुक्रगुजा़र हूँ! अब, मेरी जान, मैं लिखना बन्‍द करता हूँ, क्‍योंकि रात का एक बज चुका है। मैं कुछ गाने सुनूँगा और फिर सो जाऊँगा। 

मुलाका़त होने तक, डार्लिग!

ढेर सारा प्‍यार।











 

 

*Militae species amor est (Latin): प्‍यार भी एक तरह का युद्ध है – ओविद 43 BCAD C 17.

छब्‍बीसवाँ दिन

फरवरी ५,१९८२

 

आज सुबह मैं बड़े अच्‍छेमूडमें उठा, दिमाग भी एकदम स्‍पष्‍ट था। बिस्‍तर से बाहर आने से पहले मैंने कैसेट के साथ तीन थाई गाने गाए।

देखो! दिल्‍ली में फिर वर्ल्‍ड बुक्‍स फेयर आ गया है, हर तबके के लोगों के लिये। यह प्रगति मैदान में हो रहा है ५ से १५ फरवरी १९८२ तक। श्रीमती इन्दिरा गांधीने पांचवे विश्‍व पुस्‍तक मेले के उद्घाटन समारोह की सदारत की।

कुछ पुस्‍तकें मुझे पसन्‍द थीं और कुछ अन्‍य, में स्‍वीकार करती हूँ, मुझ पर थोपी गई थी। कुछ किताबें मैं खुले आम पढ़ सकती थी और कुछ पेडों की टहनियों में छिपकर या बाथ-रूम में बन्‍द होकर।इस तरह से श्रीमती गांधी ने गुरूवार को किताबों से अपने रिश्‍ते का वर्णन किया।

मेले का आयोजन पढ़ने की आदत के विकास और उन्‍नति के लिये किया गया है (मैं इसमें से आधी बात पर विश्‍वास करता हूँ)। इस बार मेले में १०,००० से अधिक पुस्‍तकें पदर्शित की जा रही है, जिन्‍हे ४५० भारतीय एवं ३० देशों के ६५ प्रकाशकों ने प्रकाशित किया है। अकेले रूसी ही २०० लेखकों की ३,००० से अधिक पुस्‍तके प्रदर्शित कर रहे हैं। मेले की खास बात है ७००० चुनी हुई पुस्‍तकों काराष्‍ट्रीय प्रदर्शनजो १९८० में आयोजित चौथे पुस्‍तक मेले के बाद प्र‍काशित की गई हैं। लंच से पहले हमने (मैं, सोम्‍मार्ट और सोम्रांग) तय किया कि कल सुबह किताबें खरीदने जाएंगे।

मगर लंच के बाद प्रयूण आया और सोम्‍मार्ट को उसके साथ चलने के लिये मनाने लगा। सोम्‍मार्ट ने सोम्रांग को मजबूर किया कि वह उनके साथ चले। वे मेरी ओर भी देख रहे थे, मगर मैं काम से बाहर निकल गया। मैंने अपने दिमाग को कल के लिये तेयार किया था, आज के लिये नहीं, और चाहे जो भी हो जाए इस निर्णय का पालन करना ही पडे़गा। यहां हम अपने अपने रास्‍तों पर चल पड़े! जब मैं अपने काम (पढा़ई) से वापस आया तो मैंने अपने कमरे को नई तरह से सजाया, कुछ कपडे़ धोए, और अपने आप को व्‍यस्‍त रखा किसी नई और रचनात्‍मक चीज के बारे में सोचते हुए। जैसे ही मैं कमरे में आया वु‍थिपोंग ने आकर तुम्‍हारे होस्‍टेल की होस्‍टेल-नाईट के बारे में बताया। उसके कहने के मुताबिक, ओने दस मेहमानों को डिनर पर बुलाना चाहती थी (मुझे भी?)। मगर उसने इसे गैर जरूरी समझा। मैंने भी उसकी राय से सहमति जताई। इसलिये सिर्फ मिराण्‍डा की लडकियों को ही होस्‍टेल-नाईट में बुलाया गया। मालूम है एक एक मेहमान के लिये उन्‍होंने कितना पैसा दिया? दस रूपये! ये कोई मामूली बात नहीं है।

उसने मुझसे फिर पूछा कि तुम कब आ रही हो। मैं उससे सिर्फ यही कह सका, ‘‘देखते रहो!’’ और क्‍या बता सकता था मैं उसे? मुझे खुद को भी नहीं मालूम है। सॉरी, सर, मैं तुम्‍हें नहीं बता सकता! जब मैंने कपड़े धो लिये तो हम कॉमन रूम में पिंग-पोंग खेलने चले गए। प्राचक और महेश भी खेल में शामिल थे। चौथे गेम में मैंकोर्टपर छा गया। मैं खेल के हर पहलू में उनसे श्रेष्‍ठ था (शेखी मार रहा हूँ?)। मगर पाँचवे और छठे गेम में मुझे हारना पडा़। वजह तो कोई नहीं थी, बस स्‍पोटर्समेन शिप। अच्‍छा सबक मिला मुझे! जब गेम खतम हो गया तो मै नहाया और अपने कमरे में एक कप कॉफी पी गया। सोम्‍मार्ट और सोम्रांग अभी लौटे नहीं हैं।

6.30 बजे आचन च्‍युएन सोम्‍मार्ट, सोम्रांग और मुझसे मिलने आया। दुर्भाग्‍य से होस्‍टेल में मैं अकेला ही बचा था। हमने मौसम और भारतीय जिन्‍दगी के बारे में कुछ देर बात की। आचन च्‍युयेन अपने शोध-प्रबंध के बारे में काफी संजीदा है (मैं तो उकता गया हूँ)। उसने मुझसे उसके एम.फिल. के शोध-प्रबन्‍ध के सारांश को संक्षिप्‍त करने और व्‍याकरण सुधारने को कहा (अगर जरूरी हो तो), मैं उसकी मदद करने को तैयार था। मगर मेरे पूरा करने से पहले ही वह चला गया। उसने मुझसे कहाः

‘‘कल सुबह मैं तुमसे मिलने फिर आऊँगा’’। उसके सारांश को पढ़ने में मुझे एक घंटा लग गया। कुछ व्‍याकरण की रचनाएं दुबारा करनी पड़ी, कुछ शब्‍दों के बदले दूसरे शब्‍द लिखने पड़े, मगर उसकी ‘‘परिकल्‍पना’’ को बिल्‍कुल जैसा का वैसा रखा गया है। उसकी ‘‘परिकल्‍पना’’ को मैं कैसे बदल सकता हूँ? लिंग्विस्टिक्‍स को छोड़कर बाकी सभी चीजों में मैं उससे छोटा हूँ! आज का काम हो गया, मेरी प्‍यारी। अब मैं रोकता हूँ। ओह, प्‍लीज़, भूल न जानाः मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ, अभी भी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Amantiumirae amoris integration est (Latin): प्रेमियों के झगडे़ उन्‍हें जोड़ने का बेहतरीन साधन हैं – टेरेन्‍स 190-159  BC

सत्‍ताईसवाँ दिन

फरवरी ६,१९८२

 

एक मोटा शीर्षक आज के अखबार में  - ‘‘सूरिनाम में सैनिक विद्रोह” :  सूरिनाम कहाँ है? यह सवाल उठ सकता है। मैं तुम्‍हें नहीं बता सकता कि कहाँ है, मगर मेरे छोटे से नक्‍शे की ओर देखो और उसी को तुम्‍हारे सवाल का जवाब समझ लो।

यह है उस खबर का सारांशः

दि हेग, फरवरी 5 – सूरिनाम में सेना ने एक बार फिर सत्‍ता हथिया ली हैं; प्रेसिडेन्‍ट को इस्‍तीफा देने पर मजबूर कर दिया गया। नीदरलैण्‍ड की न्‍यूज़ एजेन्‍सी ANP के हवाले से AFP की रिपोर्ट। 

अब सत्‍ता लेफ्टिनेंट कर्नल देसी बूटेर्स, राष्‍ट्रीय मिलिटरी कौंसिल के अध्‍यक्ष के हाथ में बताई जाती है।

शायद सूरिनाम के बारे में कुछ और जानना योग्‍य होगाः सूरिनाम में भारतीयों की, खासकर पूर्वी उत्‍तर प्रदेश से आए हुए लोगों की एक बड़ी आबादी है, जिनके पूर्वज कई दशकों पहले यहाँ चले आए थे। उनमें से अधिकांश हिन्‍दू एवम् आर्य समाजी हैं, मगर भारतीय समुदाय में क्रिश्‍चन और मुसलमान भी काफी संख्‍या में हैं। ठीक हैं। उसके बारे में कुछ और बताता हूँ। सूरिनाम को १९७५ में नीदरलैण्‍ड से आजादी मिली है। यह ज्ञानकारी पर्याप्‍त है सूरिनाम को जानने के लिये। अब मैं भारत में अपने दैनंदिन अस्तित्‍व के बारे में अपनी डायरी की ओर लौटता हूँ।

आज का दिन मैंने पूरे उत्‍साह और उत्‍सुकता से बिताया। उसका पूरा पूरा सदुपयोग किया। सुबह मैं डिपार्टमेन्‍ट गया जिससे डिपार्टमेन्‍ट की हाल ही की गतिविधियों की जानकारी प्राप्‍त कर सकूँ। यहाँ मुझे पता चलता है कि मेरे रिसर्च गाइड कौन हें – डा० ए०के० सिन्‍हा। मैं उनका अकेला शोध-छात्र हूँ। अन्‍य गाइड्स को दो-दो छात्र दिये गए हैं। डा० प्रेम सिंह के पास इस साल कोई शोध-पत्र नहीं है क्‍योंकि उनकी विशेषता के क्षेत्र में (फोनोलोजी और हिंस्‍टोरिकल लिंग्विस्टिक्‍स) काम करने का प्रस्‍ताव इस साल किसी ने नहीं दिया है।

इस साल विद्यार्थियों की दिलचस्‍पी सिंटेक्‍स (वाक्‍य विन्‍यास) तथा सोशिओ लिंग्विस्टिक्‍स (सामाजिक भाषा विज्ञान) में हैं। नोटिस के अनुसार, मुझे अपने काम का सारांश इस महीने की पन्‍द्रह तारीख को देना है और एम. फिल. कमिटी की मीटिंग इस महीने की उन्नीस तारीख को फिर से होगी शोध-विषयों को अंतिम रूप देने के लिये। मैं डिपार्टमेन्‍ट से होस्‍टल की ओर चल पडा़। रेणु, जूली और टूम मेरी ही तरफ आ रही थीं। वे सेन्‍ट्रल लाइब्रेरी जा रही थीं अपने स्‍पेशल टयूटर से मिलनें।

मैं उनके साथ सेन्‍ट्रल लाइब्रेरी गया ‘‘थाई वाक्‍य विन्‍यास’’ नामक पुस्‍तक लेने, जिसे डा० उडोम वारोटमासिक्‍खाडिट ने लिखा है। मैंने केटेलॉग से किताब का नंबर लिया, मगर शेल्‍फ में वह किताब नहीं थी। फिर मैं लंच के लिये होस्‍टेल वापस आ गया। लंच के बाद इतना आलस आ रहा था। मैंने कुछ गाने सुने और, मेरी ऑख लगने ही वाली थी। मगर अचानक मेरे अंतर्मन ने मुझे झकझोर दिया। कल मैंने निश्‍चय जो किया था विश्‍व पुस्‍तक मेले में जाने का। अपने आलस पर काबू पाकर मैं कल के निर्णय को पूरा करने निकल पडा़।

मैं तीन बजे मेले में पहुँचा, टिकट खरीदा और अन्‍दर गया। सूचना केन्‍द्र पर जाकर पूछा कि मेरी दिलचस्‍पी की जगह पर कैसे जाऊँ। पहले मुझे जाना था हॉल नं० 8A में। मैंने किताबों की लंबी-लंबी कतारों पर नजर दौडा़ई और एक किताब उठा ली।

‘‘युवावस्‍था’’ एक मानसिक स्‍व-चित्रण डेनियल ऑफर, एरिक ओस्‍त्रव और केनेथ आइ० होवार्ड द्वारा। मैंने विषय सूची पर नजर दौडा़ई और देखा कि दूसरा अध्‍याय काफी रोचक है। यह पांच प्रकार के ‘‘-स्‍व’’ का वर्णन करता है।

  • मानसिक स्‍वत्‍व
  • सामाजिक स्‍वत्‍व
  • लैंगिक स्‍वत्‍व
  • पारिवारिक स्‍वत्‍व
  • परिष्‍कृत स्‍वत्‍व

मैंने कागज के एक पन्‍ने पर इसे नोट कर लिया, जो मैं ऐसे ही किसी आकस्मिक ज्ञान को ध्‍यान में रखकर अपने साथ लाया था। फिर मैंने किताब को वापस स्‍टॉल में रख दिया। अब मैं अपनी रूचि की दूसरी जगह पर गया – अरब पैविलियन। यहाँ कई तरह की किताबें रखी हैं। भाग लेने वाले हैं जर्मनी से, ईराक से, अमेरिका से, थाईलैण्‍ड से एवम् अन्‍य देशों से। मैंने रूक कर हर स्‍टॉल पर नजर डाली। फिर, संयोगवश, मेरी नजर थाईलैण्‍ड के स्‍टॉल पर पड़़ी। बड़ा दयनीय प्रदर्शन! स्‍टॉल पर थोड़ी सी ही किताबें थी, और कोई पर्यवेक्षक भी नहीं था। काफी कम लोग वहाँ किताबें देख रहे थे। लगभग खाली था स्‍टॉल। देशभक्ति की भावना मेरे भीतर जोर मारने लगी। मैंने तय कर लिया कि और कहीं नहीं जाऊँगा, बल्कि इसी स्‍टॉल के आस पास मंडराऊँगा। मैं काफी दिलचस्‍पी से स्‍टॉल पर रखी हर किताब के पन्‍ने पलट रहा था। मुझे थाई स्‍पर्श का अनुभव हो रहा था। उस छोटे से स्‍टॉल पर करीब बीस किताबें थी, ब्रोशूर्स और कार्टून्‍स भी उनमें शामिल थे।

ये हैं महत्‍वपूर्ण किताबेः

  1. थाई रामायण
  2. बौद्ध्‍ धर्म का विवरण
  3. थाईलैण्‍ड का लोकप्रिय इतिहास (एम० जुम्‍साई)
  4. महामहिम सम्राट भुमिबोल अदुल्‍यादेज – थाईलैण्‍ड के दयालु सम्राट (तानिन क्रेविक्सिन)
  5. स्‍याम के चीनी बर्तन (चार्ल्‍स नेल्‍सन स्पिन्‍कस)
  6. एन्‍ना और थाईलैण्‍ड के सम्राट

स्‍टॉल पर किताबों की एक लिस्‍ट है जिसे मैं औरों से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण मानता हूँ। मैंने दो पॉकेट बुक्‍स पढ़ लीः क्रेटोंग (अंग्रेजी अनुवाद) और सिन्‍ड्रेला (थाई अनुवादः बच्‍चों के लिये कार्टून)। क्रेटोंग में मुझे श्री प्राण का एक प्रसिद्ध कथन मिला जिसका प्रिन्‍स प्रेम पुराछत्र ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। यह इस तरह से हैः

‘‘बताएं नहीं तुम्‍हारे नयन-बाण मेरा भविष्‍य,’

अपने शिकार पर शिकारी की तरह बरस

अगर तीर चलाना ही है, तो चलाओ सीधे मेरे दिल पर!

मरने के बजाय धमकाने की क्रूरता होगी मेरे पास। (प्राक्‍कथन से)।

क्रेटोंग और विमला के बीच कुछ दिलचस्‍प संवाद इस तरह से हैः 

  • ‘‘अगर तुम मेरे साथ वाक़ई में चलना चाहो तो तुम्‍हें कुछ खोना ही पड़ेगा, जैसे कि बड़े भाई को प्‍यार करना, मगर छोटे को खोने की इच्‍छा न करना’’ (क्रेटोंग विमला से)
  • औरत के दिमाग को समझना उससे भी कठिन है जितना कोई सोचता है; सबसे गहरे समुद्र को नापना आसान हे। औरत के तीन सौ छलों को जानना असंभव है। (क्रेटोंग विमला से)

और यह हे अंतिम वाक्‍य जो मुझे याद हैः

  • ‘‘तुम शब्‍दों के जादूगर हो और वाक्‍यों के शिल्‍पी, जैसे जमीन को काटता हुआ एक झरना। हर कोई तुम पर निर्भर रह सकता है, इनकार नहीं मिलेगा’’ (विमला क्रेटोंग से)

जब मैं वहाँ खडा़ था तो कुछ लोग वहाँ किताबें देखने आए और पूछने लगे,

 

‘‘क्‍या ये बिकाऊ है?’’

‘‘स्‍टाल की देखभाल कौन कर रहा है?’’

‘‘ये कितने की है, ये वाली?’’

मुंबई की एक औरत ने पूछाः 

‘‘क्‍या आपके पास थाई रसोई पर कोई किताब है?’’

‘‘क्‍या आपको वाकई में थाई खाने में रूचि है?’’ मैंने उससे पूछा।

उसने कहा, ‘‘हाँ’’ और मुझे बताने लगी कि वह अकसर मुंबई से बैंकाक जाती-आती रहती है। उसने मुझसे बैंकाक की किसी किताबों की दुकान का नाम पूछा जहाँ वह थाई रसोई के बारे में किताब खरीद सके। वह बड़ी उत्‍साही और चुलबुली किस्‍म की थी। वह बढि़या अंग्रेजी बोलती है, अमेरिकन लहजे में, मैंने उसकी दिलचस्‍पी की सराहना की। जब हम बात कर ही रहे थे, तो एक चीनी चेहरे-मोहरे का वृद्ध व्‍यकित्‍ थाईलैण्‍ड – स्‍टॉल के पास आया। जब मैंने उसकी ओर देखा तो एक ‘‘थाईपन’’ की भावना मुझे छू गई। मैंने उसकी कमीज की जेब पर बैच लगा देखाः

 

एम० जुम्‍साई,

अंतर्राष्‍ट्रीय सेमिनार प्रतिनिधि।

 

ये वही है! एम० एल० मानिच जुम्‍साई, थाईलैण्‍ड के महान अंग्रेजी विद्वान, जिसके प्रति अपने अंग्रेजी ज्ञान के लिये मैं कृतज्ञ हूँ – जो मुझे उसके थाई-अंग्रेजी शब्‍दकोष की सहायता से प्राप्‍त हुआ। मैंने थाई अन्‍दाज में उनका अभिवादन किया। उन्‍होंने मुझे बताया कि वे खुद ही थाईलैण्‍ड से किताबें यहाँ लाए थे और उन्‍हें प्रदर्शित किया था। अब मुझे कोई अफ़सोस नहीं है; थाई-प्रदर्शन इतना दयनीय इसलिये था क्‍योंकि वह सिर्फ एक व्‍यक्ति की कोशिश का नतीजा था। बल्कि, मुझे इस पहल और रचनात्‍मक प्रयत्‍न के प्रति आदर महसूस हुआ, जिसने एक छोटे काम को बेहतरीन बनाने की कोशिश की थी। मैं आपका सम्‍मान करता हूँ, सर! फिर उन्‍होंने कहा

‘‘प्रदर्शनी जल्‍दी में आयोजित की गई। मैं काफी देर से आया। मैंने खुद से ही किताबें स्‍टॉल पर रखीं और उसके ऊपर लिखा ‘‘थाईलैण्‍ड’’

उन्‍होंने मुझसे पूछा कि क्‍या आसपास किसी होटल में रहने की व्‍यवस्‍था हो सकती है, जिससे वे मेले तथा होटल के बीच सुविधा से आना जाना कर सकें। पिछली रात वे विक्रम होटल (डिफेन्‍स कॉलनी) में रूके थे।

‘‘वह बहुत दूर है। मैं पास के ही किसी होटल में रहना चाहता हूँ।’’

मैं उन्‍हें और उनके श्री लंकाई मित्र को कनाट प्‍लेस लाया, १०० रू० प्रति कमरे वाले किसी होटल की तलाश में। वह बेहद थके हुए थे। पहले होटल में, जहाँ हम पहुँचे, सफलता नहीं मिली। श्री लंकाई दोस्‍त किसी नये कमरे में जाने के प्रति उदासीन था। मुझे ऐसा लगा कि वह पहले वाले कमरे में ही रहने को उत्‍सुक था। मैंने उसके लिये कमरा ढूँढना रोक दिया और एक रिक्‍शा बुलाकर उन्‍हें पहले वाले कमरे में छोड़ आने को कहा। एम०एल० मानीच जुम्‍साई ने धन्‍यवाद के अंदाज में मेरे कंधों को छुआ। मैंने उनके सम्‍मुख सिर झुकाया और थाई अंदाज में बिदा ली। शायद आपसे फिर मुलाकात हो जाये, सर!

कनाट प्‍लेस पर मैंने अपने होस्‍टेल के लिये बस पकडी-नये अनुभव और नई खोजों को दिल में संजोये। जिन्‍दगी कितनी दिलचस्‍प है!



 

 

 

 

 

*Non caret effectu, quod volere duo (Latin): यदि दो व्‍यक्ति कुछ करने की ठान लें, तो उन्‍हें कोई नहीं रोक सकता – ओविद 43 BCAD C 17

अट्ठाईसवाँ दिन

फरवरी ७,१९८२

 

एक महीने की जुदाई मानो जीवन भर की जुदाई हो। मुझसे न पूछोकि मुझे तुम्‍हारी कितनी याद आई। मुझसे न पूछो कि मैं तुमसे कितना प्‍यार करता हूँ। मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ  कि तुम मेरे लिये सब कुछ हो और मेरा सब कुछ तुम्‍हीं हो। क्‍या यह पर्याप्‍त है? ये मेरी आज की चेतना का आरंभ है।

और अब मेरी खोजों की दुनिया में चलूँ: 

सुबह मुझे हल्‍का-सा जुकाम था। बाहर निकलने के बदले मैंने दवा की एक गोली खाई और घंटा भर बिस्‍तर पर आराम किया। इसके बाद मुझे कुछ अच्छा लगा। २ बजे मैं फिर से पुस्‍तक मेले में गया। इस बार मेरा इरादा एम०एल० मानिच जुम्‍साइ्र की मदद करना था, उनके किसी काम आ सकता! यह हुई एक बात, दूसरी यह कि किताबों में प्रदर्शित ज्ञान की दुनिया में थोडा़ टहल आऊँ। मेरे पास दो रूपये थे। मगर यह कोई समस्‍या नहीं थी, क्‍योंकि मैंने कोई किताब खरीदी ही नहीं। किताब का मूल्‍य चुकाए बिना भी मैं उसमें से कुछ न कुछ हासिल कर सकता हूँ।

बेशक मैं ‘‘कुछ भी नहीं’’ से ‘‘कुछ’’ बनाने की कोशिश कर रहा था। यह संभव है और मैंने यह किया भी। बस ने मेरे साथ मजा़क ही किया। वह दूसरे रास्‍ते से गई और मुझे कहीं और ले गई। मैंने उतरने की कोशिश की, इससे पहले कि बस मुझे बहुत दूर ले जाये, मगर कोई फायदा नहीं हुआ, ड्राइवर ने मेरी मिन्‍नत पर ध्‍यान ही नहीं दिया। मैं महारानी बाग पर उतरा और दूसरी बस पकड़ कर पुस्‍तक मेला पहुँचा। बस खचाखच भरी थी। मुझे कोहनियों से भीड़ में से होकर अपने लिये रास्‍ता बनाना पडा़, ताकि मैं उतर सकॅू। दूसरे यात्री चीख रहे थे और कंधों से धक्‍के मारते हुए रास्‍ता बना रहे थे। ये बडा़ दर्दनाक एहसास है, मजा़ भी आता है। नीचे उन देशों के नाम दे रहा हूँ जहाँ मैं आज किताबें देखने गयाः 

थाईलैण्‍ड - हर चीज वैसी ही है, जैसी कल थी। एम०एल० मानिच जुम्‍साई अभी तक आए नहीं थे। मैं देर तक उनका इंतजार नहीं कर सकता था। मैं अन्‍य स्‍टॉलो की ओर गया, इस बात का ध्‍यान रखते हुए कि मैं थाईलैण्‍ड वापस आऊँगा। फिर मैं आया भी।

बांग्‍लादेशयहाँ बस एक किताब मुझे अच्‍छी लगी। इसका शीर्षक है ‘‘बांग्लादेश के युवा कवि’’। मैंने पन्‍ने उलट पलट कर देखा तो एक कविता दिखाइ्र दी, जो काफी काल्‍पनिक थी। ये है वह कविताः

नग्‍न चन्‍द्रमा

देखा शशि* को कपड़े उतारते,

उसने अपनी कंचुकी और साया हटाया,

खुशबू, जिसे चांदनी रात कहते हैं,

उसके शरीर से फिसल गई।

जब मैंने उस पवित्र नग्‍न चन्‍द्रमा को 

अपनी पिछली जेब में रखा

और चुपके से ले आया

अपने शयनगार में।

(*चूंकिचन्‍द्रमाअंग्रेजी में स्‍त्रीलिंग है, इसलिये उसे स्‍त्री की तरह दिखाया गया है, अतः पहली पंक्ति मेंशशिशब्‍द का प्रयोग किया गया है – अनुवादक) 

और फिर मैं आया

ईरानइमान खोमैनी के बड़े पोस्‍टर हर तरफ टँगे थे, नीचे लिखा थाः

‘‘अमेरिका एक नंबर का दुश्‍मन है दुनिया के दलित लोगों का,’’ और ‘‘अमेरिका इतना खतरनाक है कि अगर तुम थोडा़ भी अनदेखा करो तो वह तुम्‍हें नष्‍ट कर देगा।’’

यह एक ही ऐसा स्‍टाल था जो खुल्‍लमखुल्‍ला राजनीति करने में लिप्‍त हो गया था। मुझे विश्‍वास करने में हिचकिचाहट हो रही थी कि यह एक पुस्‍तक मेला हे। यह तो राजनीतिक प्रचार है, अमेरिका को उसके श्रेय से वंचित रखने का, भारत की मौन अनुमति से। थोडा़ सा निराश होकर मैं आगे बढा़।

ईराकप्रेसिडेन्‍ट सद्दाम हुसैन की शानदार तस्‍वीर एक रंगबिरंगी फ्रेम में लगाई गई थी। मगर यहाँ कोई प्रचार नहीं हो रहा था, सिर्फ एकता के बारे में पोस्‍टर्स लगे थे। पोस्‍टर्स और अखबार, अंग्रेजी, उर्दू और अरबी में, बड़ी संख्‍या में बाँटे जा रहे थे। मैंने एक पोस्‍टर और तीन अखबार उठा लिये (अंग्रेजी, उर्दू और अरबी) और दूसरे देश को चल पडा़।

फ्रान्‍सयहाँ हर चीज़ फ्रेंच में लिखी गई है। मैं समझ नहीं पाया कि यहाँ क्‍या हो रहा है। एक भाषाविद् का जोश मुझमें हिलोरें लेने लगा। मैंने अंग्रेजी और फ्रेंच शब्‍दों की तुलना करने की कोशिश की उनके बीच की समानताएं एवम् विभिन्‍नताएं देखने के लिये।

              फ्रेंच                                                                  अंग्रेजी

              Economic                                                      Economy

              Medecine                                                      Medicine

              Novembre                                                     November

              Statistique                                                     Statistics

              Produits                                                         Products

              Linguistique                                                  Linguistics        

              Syntaxiques                                                  Syntactics

              Lettres                                                            Letters

              Familiale                                                       Family

              Spendeurs                                                      Splendour

              Mondes                                                          Months

              Musique                                                        Music

              Generales                                                      General

फ्राँस से मैं आगे गया

इंग्‍लैण्‍डयह एक बड़ी प्रदर्शनी है; अलग अलग तरह का ज्ञान लोगों को दिखाया जा रहा था। ब्रिटिश कौंसिल और अन्‍य कई प्रकाशक इसका संचालन कर रहे थे। मैंने एक किताब उठाई, फिर दूसरी उठाई। मेरे पास पैसे नहीं थे, मगर फिर भी मैं उनमें से कुछ हासिल करना चाहता था। और बेशक मुझे वो मिल ही गई। नीचे देखोः 

  1. ‘‘मुझे तुमसे प्‍यार न करने दो, अगर मैं तुमसे प्‍यार नहीं करता तो (हरबर्ट)’’। यह समझाया गया है कि यहाँ सन्दिग्‍धता है, ‘‘पुनरूक्ति’’ के कारण। मुझे यह पता नहीं चला किपुनरुक्तिशब्‍द का क्‍या मतलब हैं। मैंने इसे ‘‘उपयोग तथा दुरूपयोग’’ (एरिक पार्टरिज द्वारा लिखित) नामक पुस्‍तक से लिया।
  2. ‘‘मैं अकेला रह गया, दृश्‍य दुनिया को खोजते हुए, न जानते हुए, क्‍यों।’’

मेरे स्‍नेह के स्‍तंभ हटा दिये गये मगर फिर भी इमारत खड़ी थी, जैसे संभल गई हो, अपनी ही शक्ति से।

(प्रस्‍तावना, II, 292-6: वर्डस्‍वर्थ की काल्‍पनिक कविताऍ)

3.                   ‘‘...प्‍यार करता हूँ तुमसे?

बेशक, मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ।

इसीलिये मुझे जाना होगा,

इससे पहले कि तुम जानो, कितना’’ 

(१२वीं घरेलू आपदाः लिन्‍डा गुडमैन की प्रेम कविताएं)

4.                   ‘‘हर इंसान, मैं तुम्‍हारे साथ जाऊँगा,

और तुम्‍हारा मार्गदर्शक बनूँगा

तुम्‍हारी सबसे जरूरत की घड़ी में

तुम्‍हारे साथ रहूँगा।’’

(कोलरिज की कविताएं)

और कुछ रोमांटिक शीर्षक भी देखे, जो दिलचस्‍प थेः

1.       पीडित प्‍यार

2.       प्‍यार करने वाला गुलाम

3.       प्‍यार कोमलता से बोलता है

4.       अधिकृत लड़की

5.       सुन्‍दर पुरूष का कभी विश्‍वास न करों

6.       एक छोटी सी मीठी घड़ी

7.       प्‍यारा दुश्‍मन

8.       अधिकार से बाहर

इतना ऊब गया हूँ दुनियादारी की बातों से। मैं धार्मिक स्‍टाल्‍स पर गया, जो बड़ी संख्‍या में थे। मैं बहुत देरी से नहीं लौट सकता था। इसलिये मैंने सिर्फ भगवान श्री रजनीश का स्‍टाल देखने का निश्‍चय किया – जो काफी विवादित धार्मिक नेता हैं। वे मेरे पसन्‍दीदा भारतीय गुरूओं में से एक हैं। उनकी लिखी हुई एक हजा़र पुस्‍तकें प्रदर्शित की गई थीं। हर शीर्षक एक आत्‍मीय झलक देता है। ये कुछ शीर्षकः

  1. न पानी, न चाँद
  2. खाली नौका
  3. सूरज शाम को उगता है
  4. जो है, सो है; जो नहीं है, सो नहीं है
  5. रेत की विद्वत्‍ता
  6. बस यूँ ही
  7. अपने रास्‍ते से दूर हटो
  8. बिना पैरों के चलो, बिना पंखों के उड़ो, और बिना दिमाग के सोचो
  9. एक पागल आदमी का पथ प्रदर्शक ज्ञान की दिशा में
  10. घास स्‍वयं ही उगती है 

रूको ... और मनन करो, और तुम्‍हें उनमें सेकुछप्राप्‍त होगा, मेरा यकीन करो।

इसके बाद मैं फिर थाईलैण्‍ड गया एम०एल० मानिच वहाँ नहीं थे। मैं उनका और इंतजार नहीं कर सकता था। मैंने श्रीलंका-स्‍टॉल की एक लड़की के पास संदेश छोडा़ और एक किताब ली (फ्या अनुमन राजाधोन की याद में)। जिसकी इजाजत मैंने कल ही ले ली थी। मुफत में! उन्‍हें धन्‍यवाद।

मैं गलत गेट से बाहर निकला। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे बस कहाँ से मिलेगी। मैंने सोलह साल के एक लड़के से, जो अनपढ़ लग रहा था, हिन्‍दी में पूछा।

‘‘आई०टी०ओ० कहाँ है, भाई?’’

‘‘मालूम नहीं, उसने जवाब दिया।

मैं इधर उधर घूम रहा था यह सोचते हुए कि कहाँ जाना चाहिए। एक ठीक-ठाक आदमी मेरी तरफ आया तो मैंने उससे पूछाः

 

‘‘क्‍या आप मुझे आई०टी०ओ० का रास्‍ता बनाएँगे, प्‍लीज?’

आप इस तरफ से सीधे निकल जाईये,’ उसने इशारे से बताया।

मैं उसके बताए रास्‍ते पर चल पडा़। मेरे सिर के ऊपर चाँद मुस्‍करा रहा है। जब मैं चल रहा था, तो वह मेरे साथ साथ चल रहा था। जब मैं रूका तो वह भी रूक गया।

मैंने उसकी तरफ सिर उठाकर देखा, उसने सिर झुकाकर मुझे देखा। कभी कभी वह 

बादलों के पीछे छिप जाता मुझे अकेला, अंधेरे में, छोड़ कर।

ओह, मेरे प्‍यारे चाँद, मैं बुदबुदाया, मैं चाँद की रोशनी के आगोश में चलता रहा जब तक मैं आई०टी०ओ० बस-स्‍टॉप पर न पहुँच गया। वहाँ मैंने नग्‍न चन्‍द्रमा से बिदा ली। 

यह थी मेरी आज की खोज, डार्लिग! चाहो तो मेरे अनुभव को बाँट लो, न चाहो तो ना सही। सब कुछ तुम पर निर्भर करता है। और अब मैं थक गया हूँ। तुम जब मेरे पास फिर से आओगी, तब तुमसे मिलूँगा!









 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Nunc scio suid sit Amor (Latin): अब मैं जान गया हूँ कि प्‍यार क्‍या है – वर्जिल 70-19 BCAD C 17

उनतीसवाँ दिन

फरवरी ८,१९८२

 

मैं अभी अभी वुथिपोंग के कमरेसे लौटा हूँ। मैंने वहीं डिनर खाया। बाहर कडा़के की ठंड है। मैं उस कडा़के के मौसम में चलकर वापस आया। आज आसमान एकदम साफ है, क्‍योंकि आज पूर्णमासी की रात है, साथ ही वह दिन भी हे जब भगवान बुद्ध ने अपने शिष्‍यों को, जो बिना किसी पूर्व सूचना के एकत्रित हो गए थे, ओवापातिमोख का उपदेश दिया। ओवापातिमोख के तीन प्रमुख सिद्धान्‍त हैः

  1. सभी बुराइयों से दूर रहो
  2. अच्‍छी आदतें डालो
  3. मस्तिष्‍क को शुद्ध करो

थाई में हम इस दिन को ‘‘माघ पूजा दिन’’ कहते हैं। परंपरानुसार इस दिन भिक्षुओं को भोजन दिया जाता है, बौद्ध धर्म की पांच शिक्षाओं का पालन किया जाता है, और उपोसथा के चारों ओर मोमबत्तियों का जुलूस निकाला जाता है।

आज, इस उत्‍सव के संदर्भ में मैं एवम् अन्‍य थाई विद्यार्थी (भिक्षु, पूर्व-भिक्षु और आम आदमी) भिक्षुओं को भोजन देने और पाँच शिक्षाओं का पालन करने अशोक बौद्ध मिशन की ओर चले। ये बडा़ शानदार समागम था, चारों ओर थाई वातावरण था। मगर मेरे लिये बुरी बात यह रही कि मैं कुछ बीमार था और मोमबत्तियों का जुलूस शुरू होने से पहले मुझे वापस लौटना पडा़। उस जगह के बारे में थोडा़ सा बताता हूँ।

अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह कहूँ कि अशोक मिशन ठीक वैसा ही है जैसा दो साल पहले था, जब मैं यहाँ भिक्षु-वस्‍त्र उतारने आया था। कोई ठोस परिवर्तन नहीं हुए हैं। कुछ भिक्षु थे, मगर बहुत सारे ऐसे थे जो भिक्षु नहीं थे, विभिन्‍न देशों सेः  लाओ, कम्‍बोडिया, तिब्‍बत, वियतनाम, और पश्चिमी देश। मुझे तो यह मठ की अपेक्षा एक शरणार्थी कैम्‍प प्रतीत होता है।

वे एक साथ रहते हैं और अनेक कार्यकलापों में व्‍यस्‍त रहते हैं, जिनमें अनेक अवांछनीय हैं। पश्चिमी लोग ड्रग्‍स के गुलाम हैं, घडों में नशीली दवाएँ जलाकर पीते हैं, ये एक अलग हिस्‍से में रहते हैं। केवल एक भिक्षु ऐसा है जो हमेशा मठ में ही रहता है। वह रेगिस्‍तान में किसी नखलिस्‍तान की तरह है। इस जगह कोई भी खाना पका सकता है – प्रसन्‍नता से या मजबूरी से। यह उसी पर निर्भर करता है। मैं स्‍वीकार करता हूँ कि इस भाग के माहौल के बारे में मेरा थोडा़ नकारात्‍मक रूख है। मैं यह नहीं कह रहा कि उन्‍हें एक साथ नहीं रहना चाहिये, बल्कि यह कह रहा हूँ कि मठ में अनैतिक/अधार्मिक कृत्‍य नहीं होने चाहिए।

मेरी संवेदना को बड़ी चोट पहुँची जब वहाँ रहने वाले किसी ने बताया कि यहाँ तो लड़की भी बिल्‍कुल सस्‍ते में मिल जाती है। पश्चिमी लोगों को, किसी कंकाल के समान इस भाग में इधर उधर देखना मुझे अच्‍छा नहीं लगता। मैं मठ के उस हिस्‍से से भाग जाना चाहता था, जहाँ मैंने इन चलते फिरते कंकालों को देखा था। ये यहाँ क्‍या कर रहे हैं? उन्‍हें यहाँ रहने की इजाज़त किसने दी? इन सामाजिक अवशेषों के लिये कौन जिम्‍मेदार है?

ठीक है। बहुत हो गया। अब कुछ और कहता हूँ। मैं वुथिपोंग, आराम, रेणु, जस, टूम, जूली और पिएन के साथ युनिवर्सिटी लौटा। मैं अकेला मॉल-रोड पर बस से उतरा, बाकी लोग अपने रास्‍ते निकल गए। मुझे बुखार था। जब मैं कमरे में पहुँचा तो मैंने एस्‍प्रो की दो गोलियाँ खा लीं और आराम करने लगा। मैं आधा-जागा था जब महेश होस्‍टेल में नहाने के लिये आया। जब वह अपने घर जाने लगा तो मैंने उससे वुथिपोंग को यह संदेश देने के लिये कहाः

‘‘कृपया जाओ और ओने को हमारे साथ डिनर करने के लिये ले आओ। मैं कोई खास चीज लेकर तुम्‍हारे पास आ रहा हूँ।’’

कुछ देर बाद मैं उसके कमरे में गया। महेश ने बाहर आकर मेरा स्‍वागत किया।

‘‘वुथिपोंग ओने को लाने गया है,’’ उसने कहा।

‘‘क्‍या वह तुम्‍हारे पास चाभी छोड़कर गया है?’’ मैंने पूछा उसने कहा, “नहीं,” और फिर मुझे अपने कमरे में आकर बैठने को कहा, वुथिपोंग का इंतजार करते हुए। मैं दस मिनट तक इंतजार करता रहा। वुथिपोंग चेहरे पर मायूसी ओढ़े आया।

‘‘क्‍या हुआ?’’ मैंने उससे पूछा।

‘‘वह नहीं आना चाहती। वह अपने टयूटर के साथ पढ़ रही है। मुझे बड़ी निराशा हुई है,’’ वह बरसा।

‘‘ठीक है। उसको अपना काम करने दो, हम अपना काम करेंगे। भूल जाओ उस बारे में।’’

मैंने उसे दिलासा दिया, यह न जानते हुए कि और क्या कहूँ। फिर हमने अपना स्‍पेशल डिनरगरम किया और खाया। जब स्‍पेशल डिनर खतम हो गया तो उसने कहाः 

‘‘कॉफी तो खतम हो गई है। हम चाय ही पियेंगे।’’

‘‘चलेगा,’’ मैंने कहा।

इस तरह हमने अपनी मनपसन्‍द ब्‍लैक कॉफी के बदले चाय पी। आज महेश ने नोट्स लेने में मेरी मदद की। मैंने ‘‘थैंकयू!’’ कहा। वु‍थिपोंग से मैंने ज्‍यादा बात नहीं की क्‍योंकि वह बुरे मूड में था। जब मैं महेश के साथ नोट्स ले रहा था तो वुथिपोंग महेश के कमरे में टी०वी० देखते हुए आराम फरमा रहा था। यही एक तरीका है दिल बहलाने का उसके पास। मैं वाकई में उसकी कोई मदद नहीं कर सकता। मैंने 9.30 बजे अपने नोट्स पूरे किये और महेश को और उसेगुडबायकहा। सोम्‍मार्ट मोमबत्‍ती–जुलूस से वापस लौट आया था। उसने आश्‍चर्य से मुझे बतायाः

‘‘सैकडो़ लोग थे मोमबत्‍ती-जुलूस में’’

‘‘कौन थे वे?’’ मैंने पूछा।

‘‘राजदूत, राजनयिक और विद्यार्थी’’ उसने जवाब दिया। मैंने उससे आगे कुछ नहीं पूछा क्‍योंकि मैं थका हुआ था। मैंने भारी दिमाग से डायरी लिखना शुरू किया और अब मैं इसे पूरा कर रहा हूँ। अन्‍त हल्‍के दिमाग से कर रहा हूँ। परेशान न हो। दवा लेकर साऊँगा। कल मैं ठीक हो जाऊँगा। अच्‍छा, गुड नाइट, मेरी प्‍यारी। 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

*Et taedat Veneris statim peractae (Latin): लैंगिक संबंधो का आनंद अल्‍प है, बाद में आती है थकान और ऊब  – पेट्रोनियस आर्बिटर D.A.D 65

तीसवाँ दिन

फरवरी ९,१९८२

 

आज मेरी जिन्‍दगी का सबसे दुःखद दिन है, क्‍योंकि आज मुझे घर से पत्र मिला है कि मेरी दादी-माँ की मृत्‍यु हो गई है और उनका अंतिम संस्‍कार कर दिया गया है। इस दुख को बढा़ने वाली यह खबर और भी है कि मेरे मृत पिता अब तक अपने मकबरे में मेरा इंतजार कर रहे हैं, जिससे उनका अंतिम संस्‍कार कर दिया जाए। मेरे रिश्‍तेदार चाहते थे कि मैं घर वापस जाऊँ, वर्ना मेरे पिता के मृत शरीर को दफना देंगे। मुझ पर यह दोष लगाया जा रहा है कि मैंने पिता के प्रति अपने ऋण को नहीं चुकाया। हर कोई, मेरी प्‍यारी माँ को छोड़कर, मुझेकुल-कलंककह रहा है, जो एक डूबती हुई नाव को छोड़कर भाग गया है। मैं इनकार नहीं करता क्‍योंकि मैं उनसे बहुत दूर रहता हूँ, और वे मेरी परिस्थिति को और मुझे समझ नहीं पायेंगे। अगर मुझे कोई बहाना बनाना होता, मैं कोई ‘‘सस्‍ता-सा बहाना’’ नहीं बनाऊँगा। बहाने बनाने से यहाँ कोई फायदा नहीं होगा। चाहे कुछ भी हो जाए मैं वही रहूँगा। जो मैं हूँ।

‘‘मेरे पिता, मैं घुटने टेक कर तुम्‍हारे सामने बैठा हूँ, कृपया उन्‍हें मेरी परिस्थिति समझने दो। मैं तुम्‍हें नहीं भूला हूँ। तुम तो हमेशा मेरी आत्‍मा में और मेरे खून में हो। मैं जल्‍द ही तुम्‍हारे पास आऊँगा। मेरा इंतजार करना, प्‍लीज’’

मेरी प्‍यारी, आज मैं और ज्‍यादा नहीं लिख सकता। मैं दादी माँ की मृत्‍यु पर हार्दिक शोक प्रकट करना चाहता हूँ, जो मेरे लिये वापस न लौटने वाली नदी बन गई है। दादी माँ, तुम्‍हारा शरीर गल गया होगा, मगर तुम्‍हारी अच्‍छाईयाँ हमेशा याद की जाएँगी और वे हमेशा शाश्‍वत रहेंगी। ईश्‍वर तुम्‍हें शांति दे। मैं तुम्‍हें हमेशा याद रखूँगा।










 

 

 

 

*Odi et amo; quare id faciam, fortasse requires. Nescio, sed fierisentio et excrucios (Latin): मैं नफरत करता हूँ और मैं प्‍यार करता हूँ। तुम जानना चाहोगी क्‍यों। मुझे मालूम नहीं – मगर मैं ऐसा ही महसूस करता हूँ और यह जहन्‍नुम है – केटुल्‍लुस C 84 – 54 BC

इकतीसवाँ दिन

फरवरी १०,१९८२

 

सबसे पहले मैं इन्‍दौर के डा० लल्लू सिंग की तारीफ करना चाहता हूँ उनके कठोर परिश्रम के लिये और उन्‍हें उनकी लाजवाब सफलता पर बधाई देता हूँ। नीचे दी गई खबर पढो़ तो तुम्‍हें पता चल जायेगा कि उन्‍हे कैसी सफलता मिली है।

(स्‍टेट्समन, फरवरी १०,१९८२)

भारतीय वैज्ञानिक ने फेर्माट के अंतिम प्रमेय को हल कर दिया

इन्‍दौर, फरवरी १ – गणितज्ञ डा० लल्‍लू सिंग को ४५ वर्ष लगे ‘‘फेर्माट की अंतिम प्रमेय’’ का हल ढूँढने में, यू एन आई की रिपोर्ट।

जब से डा० सिंग ने ब्रिटानिका विश्‍वकोष में सन् १९३५ में उस सुप्रसिद्ध प्रमेय के बारे में पढा़, जिसका प्रतिपादन फ्रेंच गणितज्ञ पीयरे दे फेर्माट ने सन् १६३७ में किया था, वे प्रतिदिन तीन घंटे उसका हल ढॅूढने में लगाते रहे, यह जानकारी उन्‍होंने दी।

‘‘फेर्माट का अंतिम प्रमेय एक संक्षिप्त कथन है धनांकित या ऋणांकित पूर्णांकों के बारे में, जिसे गणितज्ञ इंटेजर्स (पूर्ण संख्‍या) कहते हैं।

प्रमेय के अनुसारः ऐसी कोई पूर्ण संख्‍या X, Y और Z अस्तित्‍व में नहीं है, और इसके O होने की संभावना भी, जो संबंध (X)N + (Y)N = (Z)N को संतुष्‍ट करती हे (N परिवर्तनीय पूर्णांको X, Y तथा Z की घात है)।

तीन शताब्दियों से अधिक समय से यूरोपिय एवम् अमेरिकन गणितज्ञ अपने दिमागों पर जोर डालते रहे है। पीयरे दे फेर्माट के प्रमेय पर (1601-1655)

मगर डा० सिंग के अनुसार, उनमें से कोई भी इस प्रमेय का सम्‍पूर्ण हल प्रस्‍तुत करने में सफल नहीं हुआ।

प्रमेय को उसके प्रतिपादक, फेर्माट, भी हल नहीं कर पाये, डा० सिंग ने बताया। फेर्माट अपनी अंतिम प्रमेय के हल को ढूँढने में २८ वर्षो तक लगे रहे।

फेर्माट के प्रमेय के हल से संषंधित डा० सिंग का शोध-प्रपत्र पहले इंडियन एकाडमी ऑफ मेथेमेटिक्‍स की पत्रिका में, इन्‍दौर में सन १९८० में प्रकाशित हुआ। सिर्फ आठ पृष्‍ठों में। इसमें प्रमेय से संबंधित सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।

आम लोगों के लिये और गणित के विद्यार्थियों के लिये, या विशेषकर गणितज्ञों के लिये यह बड़ी अच्‍छी खबर है। हम उनका अभिनन्‍दन करें!

मेरी जिन्‍दगी आज कम उत्‍पादक एवम् कम सक्रिय रही आत्‍म-विश्‍वास की कमी के कारण। मैं पूरे दिन होस्‍टेल से बाहर नहीं निकला। खुद लाइब्रेरी जाने के बदले मैंने सोम्‍मार्ट से कहा कि मेरी पुस्‍तक लौटा दे। सुबह में कुछ देर पढ़ता रहा, मगर ध्‍यान नहीं लग रहा था, और पढ़ने का कोई फायदा नहीं हुआ। पढा़ई की किताबें पढ़ने के बदले मैं रेडियो एवम् कुछ पुरानी पत्रिकाओं की ओर मुडा (कॉम्‍पीटीशन सक्‍सेस, कॉम्‍पीटीशन मास्‍टर, करियर इवेन्‍ट इत्यादि)। मुझे तुम्‍हारा खत पाने की उम्‍मीद थी, मगर वह पूरी न हुई। शायद अगले कुछ दिनों में मिल जाये। अखबार वाला अखबार के पैसे माँगने आया था। मेरा हाथ बहुत तंग है इसलिये मुझे यह काम स्‍थगित करना पडा़।

‘‘कल, फिर आना, प्‍लीज’’! सच कहूँ तो मुझे कठिन समय के लिये पैसे बचाने हैं। और यह पैसा मुझे कल प्राचक ने दिया था। उसने मुझसे पूछा

‘‘तुम्‍हारे पास पैसे-वैसे तो हैं ना?’’

उसने मेरे जवाब का इंतजार भी नहीं किया और पैसे निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिये, जैसे उसे मेरी स्थिति का पता हो। मैंने बडी कृतज्ञता की भावना से उससे पैसे लिये। उस जैसा आदमी आज की गला-काट प्रतियोगिता की दुनिया में आसानी से नहीं मिलता। ये, बेशक, पहली बार नहीं है जब उसने मेरे प्रति विश्‍वास और दयालुपन दिखाया था। ऐसे कई मौके आए जब मुझे मदद की जरूरत थी, वह मौके पर पहुँच कर मेरी मदद करता रहा। मैं उसके सामने सिर झुकाकर बार बार उसे ‘‘धन्‍यवाद’’ कहूँगा। 

लंच से पहले सोम्रांग मुझे एक लाइब्रेरी कार्ड देने आया। वह थका हुआ लग रहा था और थोड़ी-सी नींद लेना चाहता था। उसने मुझसे कहा कि लंच-टाइम पर उसे जगा दूँ। मगर, हुआ ऐसा कि उसीने मुझे उठाया। कितना मजा आया!

दोपहर को दो मित्र मेरे पास आये (थाई और लाओ)। वे बस आए और उसी दिन मेरठ वापस चले गए। शाम को मुझे भूख लगी। मैंने आठ रू० में ऑम्‍लेट और चाय ली। कैन्‍टीन में एक भारतीय लड़का मुझे देखकर हँस रहा था क्‍योंकि मैंने उल्‍टी हैट पहन रखी थी। मुझे अच्‍छा लगा कि मैं देखने में मजाकिया लगता हूँ।

दूसरों को खुशी देना हरेक का कर्त्‍तव्‍य है, ऐसा मेरा विश्‍वास है। फिर मैं सोम्रांग के कमरे में गया। वह शेविंग मशीन सुधार रहा था। मैंने उसके काम में खलल नहीं डाला बल्कि मैं कुछ और करता रहा (पढ़ता रहा)। माम्नियेंग उसके पास टाइपराइटर माँगने आया। उसने मुझसे पूछा कि वह एम०एल० मानिच जुम्साई से कहाँ मिल सकता है। मैंने कहा कि शायद एम०एल० मानिच जुम्‍साई थाईलैण्‍ड वापस चले गए हों। मगर फिर भी मैंने उसे सलाह दी कि विक्रम होटल में फोन करक, जहाँ एम०एल० मानिच रूके थे, पूछ ले कि वे अभी भी वहाँ हैं या नहीं। मैं उसे समझा नहीं पाया कि क्‍या एम०एल० मानिच जुम्‍साई अभी तक दिल्‍ली में हैं।

डिनर के बाद, आज रात को, बिजली आती रही, जाती रही, 10.30 बजे तक। फिर ठीक हो गई।

आज मेरी एक महीने की डायरी का अंतिम दिन है, जिस पर तुम्‍हारे जाने के बाद मैंने ध्‍यान केन्द्रित किया था। उध्‍देश्‍य यह था कि अपने अंग्रेजी ज्ञान का अभ्‍यास करुँ, जिसके बारे में, मैं स्‍वीकार करता हूँ कि मैं संतुष्‍ट नहीं हूँ। दूसरी बात यह कि मैं तुम्‍हारी अनुपस्थिति में, तुम्‍हारे लिये भारत में, खासकर दिल्‍ली में घटित घटनाओं को दर्ज कर सकूं। और अंतिम कारण यह कि मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे दिल की गहराई में जाकर मेरी उन भावनाओं को समझो जो तुम्‍हारे मुझ से दूर रहने पर दिल में रहती हैं। ओह, कितनी पीडा़ से गुजरा हूँ मैं!

अगर वाकई में तुम मेरी खुशी और गम को बाँटना चाहती हो, तुम मेरी डायरी से मेरे साथ बाँट सकती हो। जो भी मेरे मन में था, सब मैंने उँडेल दिया चाहे तुम्‍हें पसन्‍द आए या न आए। मेरी डायरी के दो पहलू तुम देखोगीः अच्‍छा और बुरा। अब यह तुम पर है कि तुम किसे चुनती हो। जो तुम्हें पसन्‍द न हो उसे स्‍वीकार करने का हठ मैं नहीं करुँगा। एक इन्‍सान होने के नाते तुम्‍हें पूरी आजादी और सम्‍मान प्राप्‍त है। मुझे इस बात पर गर्व है कि मैंने जिन्‍दगी में ‘‘कुछ’’ तो किया, खास तौर से उसके लिये जिसके लिये कोमल एवम् स्‍नेहपूर्ण भावनाएं मेरे मन में हैं। समय ही पुरस्‍कार निश्चित करेगा। मुझे तो उम्‍मीद नहीं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कल, जो कुछ भी मैंने इस एक महीने की डायरी में लिखा है उसका समापन करुँगा। यह एक पर्दा होगा,

जो पिछले तीस दिनों की जिन्‍दगी को ढाँक देगा। गुड नाइट, गुड बाय। तुमसे फिर मिलने तक।

 

 

 

 

 

 

 

जैसा कि मैंने वादा किया था, उसे पूरा कर रहा हूँ। जो कुछ भी मैंने पिछले ३० दिनों की डायरी में लिखा है उसे सिर्फ एक वाक्‍य में समाप्‍त किया जा सकता हैः मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ।

मैं अपनी डायरी इस कविता से पूरी करता हूँ -   

कोई हमें एक दूजे से न करेगा जुदा,

जीवन में और मृत्‍यु में

एक दूसरे के लिये सब कुछ

मैं तुम्‍हारे लिये, तुम मेरे लिये!

तुम वृक्ष और मैं फूल

तुम प्रतिमा; मैं जमघट

तुम दिन; मैं समय

तुम गायक; मैं गान!

(सर विलियम श्‍वेन्‍स्‍क गिलबर्ट)

 

मेरी संवेदना की पागल धाराएँ जहाँ खत्‍म होती हैं और जीवन की वास्‍तविकताएँ नये क्षितिज पर आरंभ होती हैं। दुनिया चलती रहती है, जिन्‍दगी गुजरती रहती है... तुम्‍हारे बिना सदा...मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ, ‘‘अगर तुम मुझ से प्‍यार करती हो, तो मेरे किसी और का होने पर दुखी न होना।’’

Amans, amens! Lover, Lunatic

तथास्तु! प्रेमी, पागल! - प्‍लॉटस C 250-184 BC

मुझे अभी भी तुम्‍हारी याद आती है, प्रिये!









लेखक के बारे में

धीराविट पी० नात्‍थागार्न (धीराविट पिन्‍योनात्‍थागार्न) ने महाकुला बुद्धिस्ट युनिवर्सिटी से B.A. (शिक्षा) की उपाधि प्राप्‍त की (बैंकाक, १९७९); M.A. (भाषा शास्‍त्र), M.Phil () और Ph.D (भाषा शास्‍त्र) की उपाधियाँ दिल्ली युनिवर्सिटी से क्रमशः १९८१, १९८३ और १९९० में प्राप्‍त की, Ph.D के लिये मानव संसाधन विकास मन्‍त्रालय, भारत सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिली। पूर्व में अनेक स्‍थानों पर अनेक ओहदों पर काम किया जैसे – यू. एस लाइब्रेरी ऑफ काँग्रेस (कैटालोगर) दि नेशन (पुनर्लेखक), थम्‍मासाट युनिवर्सिटी (इन्‍स्‍ट्रक्‍टर), चुलालोंगकोर्न युनिवर्सिटी.  (IUP कोऑर्डिनेटर), प्रिन्‍स ऑफ सोगख्‍ला युनिवर्सिटी (इन्‍स्‍ट्रक्‍टर)।

इन्‍होंने अनेक राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय कॉन्फ्रेन्‍स, सेमिनार, वर्कशाप में सहयोगी और प्रेजेंटर के रूप में भाग लिया। सन् १९९५ में उन्‍हें ऑस्‍ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबेरा के थाई स्‍टडीज सेन्‍टर ने विजिटिंग फेलो के रूप में आमंत्रित किया। सन् १९९९ में वे लंडन युनिवर्सिटी के गोल्‍डस्मिथ कॉलेज गए, और उसी वर्ष यूनेस्‍को – यूनिस्‍पार इन्‍टरनेशनल काँफ्रेस में एक प्रपत्र पढा़ और एक सत्र की अध्‍यक्षता की। यह काँफ्रेस लोड्ज़ पोलैण्‍ड में हुई थी, विषय था युनिवर्सिटी- इन्‍डस्‍ट्री सहयोग। वे युनिवर्सिटी ऑफ कोसिक, स्‍लोवाक रिपब्लिक की पत्रिका के और जर्नल के संपादकीय मंडल के सदस्‍य भी रह चुके हैं। सन् २००२ में उन्‍हें नॉर्दर्न इलिनोय युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया गया। अमेरिका में वास्‍तव्‍य के दौरान वे MIT, हार्वार्ड युनिवर्सिटी और वाट थाई धम्‍माराम (शिकागो) भी गए।

वर्त्तमान में वे अपने पैतृक शहर कोराटु, थाईलैण्‍ड में काम करते हैं और सुखी जीवन बिता रहे हैं।

वे दो सामाजिक मीडिया साईट्स पर हैः 

 




 

 

 

 

 

 

 

 

 

अगर मेरे बस में होता, 

तो मैं जीवन का हर दिन खुशियों से

भर देता। मैं किसी को आहत न करता,

किसी को नाराज़ न करता;

हर कष्‍ट को कम करता,

और कृतज्ञता की शुभाशीषों का आनन्‍द उठाता।

अपना दोस्‍त बुद्धिमानों से चुनता

और पत्‍नी सदाचारियों मे से

और इसलिये धोखे और निष्‍ठुरता के 

खतरे से बचा रहता।

(सैम्‍युअल जॉन्‍सनः रास्‍सेलास)

 

मैं अपना प्यार for Kindle

  अपना प्यार मैं दिल्ली में छोड़ आया   एक थाई नौजवान की ३० दिन की डायरी जो विदेश में बुरी तरह प्‍यार में पागल था                ...