*Silentium mulieri praestat ornatum (Latin): खामोशी औरत का सबसे
सुन्दर आभूषण है – एनोन
चौबीसवाँ दिन
फरवरी ३,१९८२
कितना
परिवर्तन! ज़रा ‘स्टेट्समेन’ के शीर्षक तो देखो। सबसे बडा़ शीर्षक
हैः टेलिफोन तथा डाक दरों में भारी वृद्धि। यह है उस खबर का सारांश।
नई
दिल्ली। मंगलवार – सरकार ने आज डाक तार और टेलिफोन की दरों में भारी वृद्धि की
घोषणा की,
जिससे खजाने को १०० करोड़ की आय होगी।
यह
वृद्धि,
जिसके अंतर्गत रजिस्टर्ड पार्सल/पत्र, मनी-ऑर्डर, टेलिग्राम, फोनोग्राम, टेलेक्स एवं टेलिफोन का किराया शामिल
है १ मार्चसे लागू होगी।
दुनिया
बड़ी तेजी से बदल रही है। हर चीज़ अपनी अपनी माँग पूरी करने की दिशा में बढ़ रही
है। जिन्दगी के बारे में भी यही नियम लागू होता है। हम इससे बच नहीं सकते, है ना?
कल
रात को दस बजे बिजली चली गई। अभी तक नहीं आई है। मैं कुछ भी नहीं पढ़ पाया। भरपूर
नींद ली – मीठे सपनों के साथ। मैंने सपने में देखा कि तुम पालम एअरपोर्ट पर हवाई
जहाज से उतर रही हो। तुम काफी तन्दुरूस्त, कुछ मोटी नज़र आ रही हो। मैंने मुस्कुरा
कर अपना प्यार जाहिर किया, जवाब में तुमने भी मुस्कुराहट बिखेरी। तुम
मेरी बाँहों में दौड़ी चली आई। मैंने कसकर तुम्हारा आलिंगन किया। जब मैं दिल्ली
में तुम्हारा स्वागत करते हुए तुम्हारा चुंबन लेने ही वाला था तो नींद खुल गई, सपना खत्म हो गया।
मगर
मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है। ये तो बस, सपना था, वास्तविक जीवन थोड़े ही था। हमारी
जिन्दगी ज्यादा मूल्यवान और ज्यादा अर्थपूर्ण है बनिस्बत किसी सपने के। फिर
भी,
सपने में मैंने जो भी देखा वह इस बात की याद दिला रहा था कि ‘‘तुम अभी भी मेरे दिल में हो।’’ क्या इससे बढ़कर कोई और बात है? मेरे खयाल में तो नहीं है।
आज
12 बजे मुझे एम०फिल० कमिटी के सामने इन्टरव्यू में बुलाया गया था अपने शोध कार्य
के लिये विषय का चयन करने। मैं 30 मिनट पहले ही डिपार्टमेंट पहुँचा। इन्टरव्यू
1.00 बजे तक के लिये स्थगित हो गया। मैं डिपार्टमेन्टल लाइब्रेरी में इंतजार कर
रहा था। जब इन्टरव्यू का पुनर्निधारित समय आया, तो हम (एम०फिल० के विद्यार्थी)
सेमिनार रूम में एकत्रित होकर अपनी अपनी बारी का इंतजार करने लगे। मुझे चौथे नंबर पर
बुलाया गया। पहले मैं काफी नर्वस था, मगर जब मेरा नंबर आया तो मैं काफी तनाव-मुक्त
और आत्म विश्वास से भरपूर था। मुझसे कुछ सवाल पूछे गए जैसे कि मैं कौन से विषय
पर काम करना चाहता हूँ और अपना शोध-प्रबंध किस तरह लिखने वाला हूँ। बस, इतना ही। मुझे अपने प्रस्तुतीकरण पर
संतोष है। मैं एक और बात कहना चाहता हूँ। इन्टरव्यू शुरू होने से जरा पहले, हम सारे विद्यार्थी बेहद घबराए हुए
थे। हर कोई हताश और बेचैन था। कुछ लोगों ने तो इन्टरव्यू की अच्छी खासी तैयारी
की थी। जहाँ तक मेरा सवाल है, मैंने भी थोड़ी-बहुत तैयारी तो की ही थी।
आमतौर
से हमारे दिलों में इन्टरव्यू-बोर्ड के बारे में भयानक गलतफहमियाँ होती है। हम
उसे फाँसी का फन्दा समझते हैं, जिससे हम दूर ही रहना पसन्द करते हैं। मगर
ऐसी बात बिल्कुल नहीं है। ये तो बस एक ग्रुप होता है अनुभवी व्यक्तियों का जो
हमसे विचार जानना चाहते हैं, हमारा मार्ग दर्शन करना चाहते हैं, और हमारे काम में मदद करना चाहते हैं।
हम वस्तुएँ हैं और वे हैं – मार्केट। दोनों ही एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं, और एक के बिना दूसरे का अस्त्तिव संभव
नहीं है। यह वास्तविकता है। उनसे डरने को कोई जरूरत नहीं हैं। वे भी हमारी ही तरह
इन्सान हैं। उनकी उपस्थिति में स्वयं को हीन समझना भी ठीक नहीं है। यही है सफलता
की कुंजी।
मैं
दोपहर 1.40 बजे डिपार्टमेन्ट से निकला। मुझे किरण (लाइब्रेरियन-महिला) मिली। वह
हड़ताल पर है। उसने मुझे बताया कि उसने तुम्हें लिखा है और खत को कल ही पोस्ट
किया है। मुझे डर है कि पट्टानी से बैंकाक के लिये निकलने से पहले वह तुम्हें
मिलेगा नहीं। मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हें उसके खत के बारे में बताऊँगा। मगर इस
मसले पर सोचने के बाद मैंने ऐसा न करने का निश्चय किया। वजह यह है कि मेरे पास
पैसे नहीं हैं। बस,
इतनी सी बात! मैं होस्टेल की ओर लपका ‘‘लेट-लंच’’ लेने के लिये। मगर बहुत जयादा देर हो
चुकी थी। खाना नहीं मिला।
मगर
किस्मत मुझ पर मेहेरबान है। मुझे मेस में मेज़ पर रखी तीन चपातियॉ मिल गई। यही
मेरा ‘‘लेट-लंच’’ था। थकावट और भूख के कारण मैं पीठ के
बल लेट गया और घंटो तक सोता रहा। जब मैं उठा तो हेमबर्गर मुझसे खाया नहीं गया। मैं
कैन्टीन गया: ‘‘उधारी
पर’’
ऑमलेट खाने और चाय पीने के लिये गया। जब मैं चाय की चुस्कियॉ ले रहा था, मेरी नज़र एक बन्दर पर पड़ी जो गुस्से
में पेड़ को हिला रहा था। मालूम नहीं वह किससे नाराज था। शायद अपनी ‘‘गर्ल फ्रेन्ड’’ से। मगर उसे देखने में मजा आ रहा था।
मैं इसका इस तरह से आनन्द उठाता हूँ। मैंने अपने खाते पर हस्ताक्षर किये और
थोड़ा बहुत पढ़ने के इरादे से कैन्टीन से निकल कर प्ले-ग्राउण्ड पहुँचा। मैंने
देखा कि प्रयूण मैदान के बीच में बैठा कुछ पढ़ रहा है। मैंने उसकी पढ़ा़ई में दखल
नहीं डाला। मैं अपनी पढा़ई करता रहा। जब मैंने सिर उठाकर देखा तो वह शायद हवा में
गायब हो गया था। मैं,
बहरहाल,
पढ़ता रहा। ईरानी लड़की अपने आपको ‘‘फिट’’ रखने के लिये ग्राउण्ड का चक्कर लगा रही है।
निकम्मे भारतीय भी वही कर रहे है। मुझे भी वही करने की प्रेरणा हुई। मैंने
ग्राउण्ड के दो चक्कर लगाए और जमीन पर गिर पडा़। मैं बेहद थका हुआ था। सर्दियों
में यह पहली बार था, जब
मैंने दौड़ने की कसरत की थी।
अब
मैं थोडा बहुत चुस्त हो गया हूँ। मैं शेखी नहीं मार रहा हूँ, मुझ पर यकीन करो! दौड़ने की कसरत के
बाद मैं होस्टेल के भीतर गया, दो गेम कैरम के खेले और एक गेम पिंग-पोंग का।
और यह अन्त था मेरे ‘‘कीप-फिट’’ का। अब मैं ज्यादा तन्दुरूरत लगता
हूँ। तन्दुरूस्ती दौलत से हजार गुना मूल्यवान हैं। या फिर दूसरी कहावत हैः स्वस्थ
शरीर में स्वस्थ दिमाग रहता है। ठीक है, प्यारी, अब मैं डिनर के लिये डायरी रोकता हूँ।
बाय, स्वीट
हार्ट।
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