रविवार, 27 मई 2018

लेखक का परिचय



लेखक के बारे में
धीराविट पी० नात्‍थागार्न (धीराविट पिन्‍योनात्‍थागार्न) ने महाकुला बुद्धिस्ट युनिवर्सिटी से B.A. (शिक्षा) की उपाधि प्राप्‍त की (बैंकाक, १९७९); M.A. (भाषा शास्‍त्र, M.Phil भाषा शास्‍त्र और Ph.D (भाषा शास्‍त्र) की उपाधियाँ दिल्ली युनिवर्सिटी से क्रमशः १९८१, १९८३ और १९९० में प्राप्‍त की, Ph.D के लिये मानव संसाधन विकास मन्‍त्रालय, भारत सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिली। पूर्व में अनेक स्‍थानों पर अनेक ओहदों पर काम किया जैसे – यूएस लाइब्रेरी ऑफ काँग्रेस (कैटालोगर) दि नेशन (पुनर्लेखक), थम्‍मासाट युनिवर्सिटी (इन्‍स्‍ट्रक्‍टर), चुलालोंगकोर्न युनिवर्सिटी (IUP कोऑर्डिनेटर), प्रिन्‍स ऑफ सोगख्‍ला युनिवर्सिटी (इन्‍स्‍ट्रक्‍टर)
इन्‍होंने अनेक राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय कॉनफ्रेन्‍स, सेमिनार, वर्कशाप में सहयोगी और प्रेजेंटर के रूप में भाग लिया। सन् १९९५ में उन्‍हें ऑस्‍ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबेरा के थाई स्‍टडीज सेन्‍टर ने विजिटिंग फेलो के रूप में आमंत्रित किया। सन् १९९९ में वे लंडन युनिवर्सिटी के गोल्‍डस्मिथ कॉलेज गए, और उसी वर्ष यूनेस्‍को – यूनिस्‍पार इन्‍टरनेशनल काँफ्रेस में एक प्रपत्र पढा़ और एक सत्र की अध्‍यक्षता की। यह काँफ्रेस लोड्ज़ पोलैण्‍ड में हुई थी, विषय था युनिवर्सिटी- इन्‍डस्‍ट्री सहयोग। वे युनिवर्सिटी ऑफ कोसिक, स्‍लोवाक रिपब्लिक की पत्रिका के और जर्नल के संपादकीय मंडल के सदस्‍य भी रह चुके हैं। सन् २००२ में उन्‍हें नॉर्दर्न इलिनोय युनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में आमंत्रित किया गया। अमेरिका में वास्‍तव्‍य के दौरान वे MIT, हार्वार्ड युनिवर्सिटी और वाट थाई धम्‍माराम (शिकागो) भी गए
वर्त्‍तमान में वे अपने जन्‍मजात  शहर कोराटु थाईलैण्‍ड में काम करते हैं और सुखी जीवन बिता रहे हैं।
वे दो सामाजिक मीडिया साईट्स पर हैः
Twitter (www.twitter.com/LiveDhirawit) तथा
संपर्क : dhirawit99@yahoo.com and dhirapin@gmail.com





अगर मेरे बस में होता,
तो मैं जीवन का हर दिन खुशियों से
भर देता। मैं किसी को आहत न करता,
किसी को नाराज़ न करता;
हर कष्‍ट को कम करता,
और कृतज्ञता की शुभाशीषों का आनन्‍द उठाता।
अपना दोस्‍त बुद्धिमानों से चुनता
और पत्‍नी सदाचारियों मे से;
और इसलिये धोखे और निष्‍ठुरता के
खतरे से बचा रहता।
(सैम्‍युअल जॉन्‍सनः रास्‍सेलास)


मैं अपना प्यार - 31




*Odi et amo; quare id faciam, fortasse requires. Nescio, sed fierisentio et excrucios (Latin): मैं नफरत करता हूँ और मैं प्‍यार करता हूँ। तुम जानना चाहोगी क्‍यों। मुझे मालूम नहीं – मगर मैं ऐसा ही महसूस करता हूँ और यह जहन्‍नुम है – केटुल्‍लुस C 84 – 54 BC
इकतीसवाँ दिन
फरवरी १०,१९८२

सबसे पहले मैं इन्‍दौर के डा० लल्लू सिंग की तारीफ करना चाहता हूँ उनके कठोर परिश्रम के लिये और उन्‍हें उनकी लाजवाब सफलता पर बधाई देता हूँ। नीचे दी गई खबर पढो़ तो तुम्‍हें पता चल जायेगा कि उन्‍हे कैसी सफलता मिली है।
(स्‍टेट्समन, फरवरी १०,१९८२)
भारतीय वैज्ञानिक ने फेर्माट के अंतिम प्रमेय को हल कर दिया
इन्‍दौर, फरवरी १ – गणितज्ञ डा० लल्‍लू सिंग को ४५ वर्ष लगे ‘‘फेर्माट की अंतिम प्रमेय’’ का हल ढूँढने में, यू एन आई की रिपोर्ट।
जब से डा० सिंग ने ब्रिटानिका विश्‍वकोष में सन् १९३५ में उस सुप्रसिद्ध प्रमेय के बारे में पढा़, जिसका प्रतिपादन फ्रेंच गणितज्ञ पीयरे दे फेर्माट ने सन् १६३७ में किया था, वे प्रतिदिन तीन घंटे उसका हल ढॅूढने में लगाते रहे, यह जानकारी उन्‍होंने दी।
‘‘फेर्माट का अंतिम प्रमेय एक संक्षिप्त कथन है धनांकित या ऋणांकित पूर्णांकों के बारे में, जिसे गणितज्ञ इंटेजर्स (पूर्ण संख्‍या) कहते हैं।
प्रमेय के अनुसारः ऐसी कोई पूर्ण संख्‍या X, Y और Z अस्तित्‍व में नहीं है, और इसके O होने की संभावना भी, जो संबंध (X)N + (Y)N = (Z)N को संतुष्‍ट करती हे (N परिवर्तनीय पूर्णांको X, Y तथा Z की घात है)
तीन शताब्दियों से अधिक समय से यूरोपिय एवम् अमेरिकन गणितज्ञ अपने दिमागों पर जोर डालते रहे है। पीयरे दे फेर्माट के प्रमेय पर (1601-1655)।
मगर डा० सिंग के अनुसार, उनमें से कोई भी इस प्रमेय का सम्‍पूर्ण हल प्रस्‍तुत करने में सफल नहीं हुआ।
प्रमेय को उसके प्रतिपादक, फेर्माट, भी हल नहीं कर पाये, डा० सिंग ने बताया। फेर्माट अपनी अंतिम प्रमेय के हल को ढूँढने में २८ वर्षो तक लगे रहे।
फेर्माट के प्रमेय के हल से संषंधित डा० सिंग का शोध-प्रपत्र पहले इंडियन एकाडमी ऑफ मेथेमेटिक्‍स की पत्रिका में, इन्‍दौर में सन १९८० में प्रकाशित हुआ। सिर्फ आठ पृष्‍ठों में। इसमें प्रमेय से संबंधित सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।
आम लोगों के लिये और गणित के विद्यार्थियों के लिये, या विशेषकर गणितज्ञों के लिये यह बड़ी अच्‍छी खबर है। हम उनका अभिनन्‍दन करें!
मेरी जिन्‍दगी आज कम उत्‍पादक एवम् कम सक्रिय रही आत्‍म-विश्‍वास की कमी के कारण। मैं पूरे दिन होस्‍टेल से बाहर नहीं निकला। खुद लाइब्रेरी जाने के बदले मैंने सोम्‍मार्ट से कहा कि मेरी पुस्‍तक लौटा दे। सुबह में कुछ देर पढ़ता रहा, मगर ध्‍यान नहीं लग रहा था, और पढ़ने का कोई फायदा नहीं हुआ। पढा़ई की किताबें पढ़ने के बदले मैं रेडियो एवम् कुछ पुरानी पत्रिकाओं की ओर मुडा (कॉम्‍पीटीशन सक्‍सेस, कॉम्‍पीटीशन मास्‍टर, करियर इवेन्‍ट इतयादि)। मुझे तुम्‍हारा खत पाने की उम्‍मीद थी, मगर वह पूरी न हुई। शायद अगले कुछ दिनों में मिल जाये। अखबार वाला अखबार के पैसे माँगने आया था। मेरा हाथ बहुत तंग है इसलिये मुझे यह काम स्‍थगित करना पडा़।
‘‘कल, फिर आना, प्‍लीज’’! सच कहूँ तो मुझे कठिन समय के लिये पैसे बचाने हैं। और यह पैसा मुझे कल प्राचक ने दिया था। उसने मुझसे पूछा,
‘‘तुम्‍हारे पास पैसे-वैसे तो हैं ना?’’
उसने मेरे जवाब का इंतजार भी नहीं किया और पैसे निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिये, जैसे उसे मेरी स्थिति का पता हो। मैंने बडी कृतज्ञता की भावना से उससे पैसे लिये। उस जैसा आदमी आज की गला-काट प्रतियोगिता की दुनिया में आसानी से नहीं मिलता। ये, बेशक, पहली बार नहीं है जब उसने मेरे प्रति विश्‍वास और दयालुपन दिखाया था। ऐसे कई मौके आए जब मुझे मदद की जरूरत थी, वह मौके पर पहुँच कर मेरी मदद करता रहा। मैं उसके सामने सिर झुकाकर बार बार उसे ‘‘धन्‍यवाद’’ कहूँगा।
लंच से पहले सोम्रांग मुझे एक लाइब्रेरी कार्ड देने आया। वह थका हुआ लग रहा था और थोड़ी-सी नींद लेना चाहता था। उसने मुझसे कहा कि लंच-टाइम पर उसे जगा दूँ। मगर, हुआ ऐसा कि उसीने मुझे उठाया। कितना मजा आया!
दोपहर को दो मित्र मेरे पास आये (थाई और लाओ)। वे बस आए और उसी दिन मेरठ वापस चले गए। शाम को मुझे भूख लगी। मैंने आठ रू० में ऑम्‍लेट और चाय ली। कैन्‍टीन में एक भारतीय लड़का मुझे देखकर हँस रहा था क्‍योंकि मैंने उल्‍टी हैट पहन रखी थी। मुझे अच्‍छा लगा कि मैं देखने में मजाकिया लगता हूँ।
दूसरों को खुशी देना हरेक का कर्त्‍तव्‍य है, ऐसा मेरा विश्‍वास है। फिर मैं सोम्रांग के कमरे में गया। वह शेविंग मशीन सुधार रहा था। मैंने उसके काम में खलल नहीं डाला बल्कि मैं कुछ और करता रहा (पढ़ता रहा)। माम्नियेंग उसके पास टाइपराइटर माँगने आया। उसने मुझसे पूछा कि वह एम०एल० मानिच जुम्साई से कहाँ मिल सकता है। मैंने कहा कि शायद एम०एल० मानिच जुम्‍साई थाईलैण्‍ड वापस चले गए हों। मगर फिर भी मैंने उसे सलाह दी कि विक्रम होटल में फोन करक, जहाँ एम०एल० मानिच रूके थे, पूछ ले कि वे अभी भी वहाँ हैं या नहीं। मैं उसे समझा नहीं पाया कि क्‍या एम०एल० मानिच जुम्‍साई अभी तक दिल्‍ली में हैं।
डिनर के बाद, आज रात को, बिजली आती रही, जाती रही, 10.30 बजे तक। फिर ठीक हो गई।
आज मेरी एक महीने की डायरी का अंतिम दिन है, जिस पर तुम्‍हारे जाने के बाद मैंने ध्‍यान केन्द्रित किया था। उध्‍देश्‍य यह था कि अपने अंग्रेजी ज्ञान का अभ्‍यास करुँ, जिसके बारे में, मैं स्‍वीकार करता हूँ कि मैं संतुष्‍ट नहीं हूँ। दूसरी बात यह कि मैं तुम्‍हारी अनुपस्थिति में, तुम्‍हारे लिये भारत में, खासकर दिल्‍ली में घटित घटनाओं को दर्ज कर सकूं। और अंतिम कारण यह कि मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे दिल की गहराई में जाकर मेरी उन भावनाओं को समझो जो तुम्‍हारे मुझ से दूर रहने पर दिल में रहती हैं। ओह, कितनी पीडा़ से गुजरा हूँ मैं!
अगर वाकई में तुम मेरी खुशी और गम को बाँटना चाहती हो, तुम मेरी डायरी से मेरे साथ बाँट सकती हो। जो भी मेरे मन में था, सब मैंने उँडेल दिया चाहे तुम्‍हें पसन्‍द आए या न आए। मेरी डायरी के दो पहलू तुम देखोगीः अच्‍छा और बुरा। अब यह तुम पर है कि तुम किसे चुनती हो। जो तुम्हें पसन्‍द न हो उसे स्‍वीकार करने का हठ मैं नहीं करुँगा। एक इन्‍सान होने के नाते तुम्‍हें पूरी आजादी और सम्‍मान प्राप्‍त है। मुझे इस बात पर गर्व है कि मैंने जिन्‍दगी में ‘‘कुछ’’ तो किया, खास तौर से उसके लिये जिसके लिये कोमल एवम् स्‍नेहपूर्ण भावनाएं मेरे मन में हैं। समय ही पुरस्‍कार निश्चित करेगा। मुझे तो उम्‍मीद नहीं।

कल, जो कुछ भी मैंने इस एक महीने की डायरी में लिखा है उसका समापन करुँगा। यह एक पर्दा होगा, जो पिछले तीस दिनों की जिन्‍दगी को ढाँक देगा। गुड नाइट, गुड बाय। तुमसे फिर मिलने तक।
जैसा कि मैंने वादा किया था, उसे पूरा कर रहा हूँ। जो कुछ भी मैंने पिछले ३० दिनों की डायरी में लिखा है उसे सिर्फ एक वाक्‍य में समाप्‍त किया जा सकता हैः मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ।
मैं अपनी डायरी इस कविता से पूरी करता हूँ -  
कोई हमें एक दूजे से न करेगा जुदा,
जीवन में और मृत्‍यु में
एक दूसरे के लिये सब कुछ
मैं तुम्‍हारे लिये, तुम मेरे लिये!
तुम वृक्ष और मैं फूल
तुम प्रतिमा; मैं जमघट
तुम दिन; मैं समय
तुम गायक; मैं गान!
(सर विलियम श्‍वेन्‍स्‍क गिलबर्ट)
मेरी संवेदना की पागल धाराएँ जहाँ खत्‍म होती हैं और जीवन की वास्‍तविकताएँ नये क्षितिज पर आरंभ होती हैं। दुनिया चलती रहती है, जिन्‍दगी गुजरती रहती है... तुम्‍हारे बिना सदा...मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ, ‘‘अगर तुम मुझ से प्‍यार करती हो, तो मेरे किसी और का होने पर दुखी न होना।’’


Amans, amens! Lover, Lunatic
तथास्तु! प्रेमी, पागल! - प्‍लॉटस C 250-184 BC


मुझे अभी भी तुम्‍हारी याद आती है, प्रिये!


मैं अपना प्यार - 30




*Et taedat Veneris statim peractae (Latin): लैंगिक संबंधो का आन्‍नद अल्‍प है, बाद में आती है थकान और   – पेट्रोनियस आर्बिटर D.A.D 65
तीसवाँ दिन
फरवरी ९,१९८२

आज मेरी जिन्‍दगी का सबसे दुःखद दिन है, क्‍योंकि आज मुझे घर से पत्र मिला है कि मेरी दादी-माँ की मृत्‍यु हो गई है और उनका अंतिम संस्‍कार कर दिया गया है। इस दुख को बढा़ने वाली यह खबर और भी है कि मेरे मृत पिता अब तक अपने मकबरे में मेरा इंतजार कर रहे हैं, जिससे उनका अंतिम संस्‍कार कर दिया जाए। मेरे रिश्‍तेदार चाहते थे कि मैं घर वापस जाऊँ, वर्ना मेरे पिता के मृत शरीर को दफना देंगे। मुझ पर यह दोष लगाया जा रहा है कि मैंने पिता के प्रति अपने ऋण को नहीं चुकाया। हर कोई, मेरी प्‍यारी माँ को छोड़कर, मुझे कुल-कलंक कह रहा है, जो एक डूबती हुई नाव को छोड़कर भाग गया है। मैं इनकार नहीं करता क्‍योंकि मैं उनसे बहुत दूर रहता हूँ, और वे मेरी परिस्थिति को और मुझे समझ नहीं पायेंगे। अगर मुझे कोई बहाना बनाना होता, मैं कोई ‘‘सस्‍ता-सा बहाना’’ नहीं बनाऊँगा। बहाने बनाने से यहाँ कोई फायदा नहीं होगा। चाहे कुछ भी हो जाए मैं वही रहूँगा। जो मैं हूँ।
‘‘मेरे पिता, मैं घुटने टेक कर तुम्‍हारे सामने बैठा हूँ, कृपया उन्‍हें मेरी परिस्थिति समझने दो। मैं तुम्‍हें नहीं भूला हूँ। तुम तो हमेशा मेरी आत्‍मा में और मेरे खून में हो। मैं जल्‍द ही तुम्‍हारे पास आऊँगा। मेरा इंतजार करना, प्‍लीज’’
मेरी प्‍यारी, आज मैं और ज्‍यादा नहीं लिख सकता। मैं दादी माँ की मृत्‍यु पर हार्दिक शोक प्रकट करना चाहता हूँ, जो मेरे लिये वापस न लौटने वाली नदी बन गई है। दादी माँ, तुम्‍हारा शरीर गल गया होगा, मगर तुम्‍हारी अच्‍छाईयाँ हमेशा याद की जाएँगी और वे हमेशा शाश्‍वत रहेंगी। ईश्‍वर तुम्‍हें शांति दे। मैं तुम्‍हें हमेशा याद रखूँगा।











मैं अपना प्यार - 29




*Nunc scio suid sit Amor (Latin): अब मैं जान गया हूँ कि प्‍यार क्‍या है – वर्जिल 70-19 BCAD C 17
उनतीसवाँ दिन
फरवरी ८,१९८२

मैं अभी अभी वुथिपोंग के कमरेसे लौटा हूँ। मैंने वहीं डिनर खाया। बाहर कडा़के की ठंड है। मैं उस कडा़के के मौसम में चलकर वापस आया। आज आसमान एकदम साफ है, क्‍योंकि आज पूर्णमासी की रात है, साथ ही वह दिन भी हे जब भगवान बुद्ध ने अपने शिष्‍यों को, जो बिना किसी पूर्व सूचना के एकत्रित हो गए थे, ओवापातिमोख का उपदेश दिया। ओवापातिमोख के तीन प्रमुख सिद्धान्‍त हैः
१.       सभी बुराइयों से दूर रहो
२.       अच्‍छी आदतें डालो
३.       मस्तिष्‍क को शुद्ध करो
थाई में हम इस दिन को ‘‘माघ पूजा दिन’’ कहते हैं। परंपरानुसार इस दिन भिक्षुओं को भोजन दिया जाता है, बौद्ध धर्म की पांच शिक्षाओं का पालन किया जाता है, और उपोसथा के चारों ओर मोमबत्तियों का जुलूस निकाला जाता है।
आज, इस उत्‍सव के संदर्भ में मैं एवम् अन्‍य थाई विद्यार्थी (भिक्षु, पूर्व-भिक्षु और आम आदमी) भिक्षुओं को भोजन देने और पाँच शिक्षाओं का पालन करने अशोक बौद्ध मिशन की ओर चले। ये बडा़ शानदार समागम था, चारों ओर थाई वातावरण था। मगर मेरे लिये बुरी बात यह रही कि मैं कुछ बीमार था और मोमबत्तियों का जुलूस शुरू होने से पहले मुझे वापस लौटना पडा़। उस जगह के बारे में थोडा़ सा बताता हूँ।
अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह कहूँ कि अशोक मिशन ठीक वैसा ही है जैसा दो साल पहले था, जब मैं यहाँ भिक्षु-वस्‍त्र उतारने आया था। कोई ठोस परिवर्तन नहीं हुए हैं। कुछ भिक्षु थे, मगर बहुत सारे ऐसे थे जो भिक्षु नहीं थे, विभिन्‍न देशों सेः  लाओ, कम्‍बोडिया, तिब्‍बत, वियतनाम, और पश्चिमी देश। मुझे तो यह मठ की अपेक्षा एक शरणार्थी कैम्‍प प्रतीत होता है।
वे एक साथ रहते हैं और अनेक कार्यकलापों में व्‍यस्‍त रहते हैं, जिनमें अनेक अवांछनीय हैं। पश्चिमी लोग ड्रग्‍स के गुलाम हैं, घडों में नशीली दवाएँ जलाकर पीते हैं, ये एक अलग हिस्‍से में रहते हैं। केवल एक भिक्षु ऐसा है जो हमेशा मठ में ही रहता है। वह रेगिस्‍तान में किसी नखलिस्‍तान की तरह है। इस जगह कोई भी खाना पका सकता है – प्रसन्‍नता से या मजबूरी से। यह उसी पर निर्भर करता है। मैं स्‍वीकार करता हूँ कि इस भाग के माहौल के बारे में मेरा थोडा़ नकारात्‍मक रूख है। मैं यह नहीं कह रहा कि उन्‍हें एक साथ नहीं रहना चाहिये, बल्कि यह कह रहा हूँ कि मठ में अनैतिक/अधार्मिक कृत्‍य नहीं होने चाहिए।
मेरी संवेदना को बड़ी चोट पहुँची जब वहाँ रहने वाले किसी ने बताया कि यहाँ तो लड़की भी बिल्‍कुल सस्‍ते में मिल जाती है। पश्चिमी लोगों को, किसी कंकाल के समान इस भाग में इधर उधर देखना मुझे अच्‍छा नहीं लगता। मैं मठ के उस हिस्‍से से भाग जाना चाहता था, जहाँ मैंने इन चलते फिरते कंकालों को देखा था। ये यहाँ क्‍या कर रहे हैं? उन्‍हें यहाँ रहने की इजाज़त किसने दी? इन सामाजिक अवशेषों के लिये कौन जिम्‍मेदार है?
ठीक है। बहुत हो गया। अब कुछ और कहता हूँ। मैं वुथिपोंग, आराम, रेणु, जस, टूम, जूली और पिएन के साथ युनिवर्सिटी लौटा। मैं अकेला मॉल-रोड पर बस से उतरा, बाकी लोग अपने रास्‍ते निकल गए। मुझे बुखार था। जब मैं कमरे में पहुँचा तो मैंने एस्‍प्रो की दो गोलियाँ खाली और आराम करने लगा। मैं आधा-जागा था जब महेश होस्‍टेल में नहाने के लिये आया। जब वह अपने घर जाने लगा तो मैंने उससे वुथिपोंग को यह संदेश देने के लिये कहाः
‘‘कृपया जाओ और ओने को हमारे साथ डिनर करने के लिये ले आओ। मैं कोई खास चीज लेकर तुम्‍हारे पास आ रहा हूँ।’’
कुछ देर बाद मैं उसके कमरे में गया। महेश ने बाहर आकर मेरा स्‍वागत किया।
‘‘वुथिपोंग ओने को लाने गया है,’’ उसने कहा।
‘‘क्‍या वह तुम्‍हारे पास चाभी छोड़कर गया है?’’ मैंने पूछा उसने कहा, “नहीं,” और फिर मुझे अपने कमरे में आकर बैठने को कहा, वुथिपोंग का इंतजार करते हुए। मैं दस मिनट तक इंतजार करता रहा। वुथिपोंग चेहरे पर मायूसी ओढ़े आया।
‘‘क्‍या हुआ?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘वह नहीं आना चाहती। वह अपने टयूटर के साथ पढ़ रही है। मुझे बड़ी निराशा हुई है,’’ वह बरसा।
‘‘ठीक है। उसको अपना काम करने दो, हम अपना काम करेंगे। भूल जाओ उस बारे में।’’
मैंने उसे दिलासा दिया, यह न जानते हुए कि और क्या कहूँ। फिर हमने अपना स्‍पेशल डिनर गरम किया और खाया। जब स्‍पेशल डिनर खतम हो गया तो उसने कहाः
‘‘कॉफी तो खतम हो गई है। हम चाय ही पियेंगे।’’
‘‘चलेगा,’’ मैंने कहा।
इस तरह हमने अपनी मनपसन्‍द ब्‍लैक कॉफी के बदले चाय पी। आज महेश ने नोट्स लेने में मेरी मदद की। मैंने ‘‘थैंकयू!’’ कहा। वु‍थिपोंग से मैंने ज्‍यादा बात नहीं की क्‍योंकि वह बुरे मूड में था। जब मैं महेश के साथ नोट्स ले रहा था तो वुथिपोंग महेश के कमरेमें टी०वी० देखते हुए आराम फरमा रहा था। यही एक तरीका है दिल बहलाने का उसके पास। मैं वाकई में उसकी कोई मदद नहीं कर सकता। मैंने 9.30 बजे अपने नोट्स पूरे किये और महेश को और उसे गुडबाय कहा। सोम्‍मार्ट मोमबत्‍ती–जुलूस से वापस लौट आया था। उसने आश्‍चर्य से मुझे बतायाः
‘‘सैकडो़ लोग थे मोमबत्‍ती-जुलूस में’’
‘‘कौन थे वे?’’ मैंने पूछा।
‘‘राजदूत,राजनयिक और विद्यार्थी’’ उसने जवाब दिया। मैंने उससे आगे कुछ नहीं पूछा क्‍योंकि मैं थका हुआ था। मैंने भारी दिमाग से डायरी लिखना शुरू किया और अब मैं इसे पूरा कर रहा हूँ। अन्‍त हल्‍के दिमाग से कर रहा हूँ। परेशान न हो। दवा लेकर साऊँगा। कल मैं ठीक हो जाऊँगा। अच्‍छा, गुड नाइट, मेरी प्‍यारी।

मैं अपना प्यार - 28




*Non caret effectu, quod volere duo (Latin): यदि दो व्‍यक्ति कुछ करने की ठान लें, तो उन्‍हें कोई नहीं रोक सकता – ओविद 43 BCAD C 17
अट्ठाईसवाँ दिन
फरवरी ७,१९८२

एक महीने की जुदाई मानो जीवन भर की जुदाई हो। मुझसे न पूछोकि मुझे तुम्‍हारी कितनी याद आई। मुझसे न पूछो कि मैं तुमसे कितना प्‍यार करता हूँ। मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ  कि तुम मेरे लिये सब कुछ हो और मेरा सब कुछ तुम्‍हीं हो। क्‍या यह पर्याप्‍त है? ये मेरी आज की चेतना का आरंभ है।
और अब मेरी खोजों की दुनिया में चलूँ:
सुबह मुझे हल्‍का-सा जुकाम था। बाहर निकलने के बदले मैंने दवा की एक गोली खाई और घंटा भर बिस्‍तर पर आराम किया। इसके बाद मुझे कुछ अच्छा लगा। २ बजे मैं फिर से पुस्‍तक मेले में गया। इस बार मेरा इरादा एम०एल० मानिच जुम्‍साइ्र की मदद करना था, उनके किसी काम आ सकता! यह हुई एक बात, दूसरी यह कि किताबों में प्रदर्शित ज्ञान की दुनिया में थोडा़ टहल आऊँ। मेरे पास दो रूपये थे। मगर यह कोई समस्‍या नहीं थी, क्‍योंकि मैंने कोई किताब खरीदी ही नहीं। किताब का मूल्‍य चुकाए बिना भी मैं उसमें से कुछ न कुछ हासिल कर सकता हूँ।
बेशक मैं ‘‘कुछ भी नहीं’’ से ‘‘कुछ’’ बनाने की कोशिश कर रहा था। यह संभव है और मैंने यह किया भी। बस ने मेरे साथ मजा़क ही किया। वह दूसरे रास्‍ते से गई और मुझे कहीं और ले गई। मैंने उतरने की कोशिश की, इससे पहले कि बस मुझे बहुत दूर ले जाये, मगर कोई फायदा नहीं हुआ, ड्राइवर ने मेरी मिन्‍नत पर ध्‍यान ही नहीं दिया। मैं महारानी बाग पर उतरा और दूसरी बस पकड़ कर पुस्‍तक मेला पहुँचा। बस खचाखच भरी थी। मुझे कोहनियों से भीड़ में से होकर अपने लिये रास्‍ता बनाना पडा़, ताकि मैं उतर सकॅू। दूसरे यात्री चीख रहे थे और कंधों से धक्‍के मारते हुए रास्‍ता बना रहे थे। ये बडा़ दर्दनाक एहसास है, मजा़ भी आता है। नीचे उन देशों के नाम दे रहा हूँ जहाँ मैं आज किताबें देखने गयाः
थाईलैण्‍ड - हर चीज वैसी ही है, जैसी कल थी। एम०एल० मानिच जुम्‍साई अभी तक आए नहीं थे। मैं देर तक उनका इंतजार नहीं कर सकता था। मैं अन्‍य स्‍टॉलो की ओर गया, इस बात का ध्‍यान रखते हुए कि मैं थाईलैण्‍ड वापस आऊँगा। फिर मैं आया भी।
बांग्‍लादेश – यहाँ बस एक किताब मुझे अच्‍छी लगी। इसका शीर्षक है ‘‘बांग्लादेश के युवा कवि’’। मैंने पन्‍ने उलट पलट कर देखा तो एक कविता दिखाइ्र दी, जो काफी काल्‍पनिक थी। ये है वह कविताः
नग्‍न चन्‍द्रमा
देखा शशि* को कपड़े उतारते,
उसने अपनी कंचुकी और साया हटाया,
खुशबू, जिसे चांदनी रात कहते हैं,
उसके शरीर से फिसल गई।
जब मैंने उस पवित्र नग्‍न चन्‍द्रमा को
अपनी पिछली जेब में रखा
और चुपके से ले आया
अपने शयनगार में।
(*चूंकि चन्‍द्रमा अंग्रेजी में स्‍त्रीलिंग है, इसलिये उसे स्‍त्री की तरह दिखाया गया है, अतः पहली पंक्ति में शशि शब्‍द का प्रयोग किया गया है – अनुवादक)
और फिर मैं आया
ईरान – इमान खोमैनी के बड़े पोस्‍टर हर तरफ टँगे थे, नीचे लिखा थाः
‘‘अमेरिका एक नंबर का दुश्‍मन है दुनिया के दलित लोगों का,’’ और ‘‘अमेरिका इतना खतरनाक है कि अगर तुम थोडा़ भी अनदेखा करो तो वह तुम्‍हें नष्‍ट कर देगा।’’
यह एक ही ऐसा स्‍टाल था जो खुल्‍लमखुल्‍ला राजनीति करने में लिप्‍त हो गया था। मुझे विश्‍वास करने में हिचकिचाहट हो रही थी कि यह एक पुस्‍तक मेला हे। यह तो राजनीतिक प्रचारहै, अमेरिका को उसके श्रेय से वंचित रखने का, भारत की मौन अनुमति से। थोडा़ सा निराश होकर मैं आगे बढा़।
ईराक – प्रेसिडेन्‍ट सद्दाम हुसैन की शानदार तस्‍वीर एक रंगबिरंगी फ्रेम में लगाई गई थी। मगर यहाँ कोई प्रचार नहीं हो रहा था, सिर्फ एकता के बारे में पोस्‍टर्स लगे थे। पोस्‍टर्स और अखबार, अंग्रेजी, उर्दू और अरबी में, बड़ी संख्‍या में बाँटे जा रहे थे। मैंने एक पोस्‍टर और तीन अखबार उठा लिये (अंग्रेजी, उर्दू और अरबी) और दूसरे देश को चल पडा़।
फ्रान्‍स – यहाँ हर चीज़ फ्रेंच में लिखी गई है। मैं समझ नहीं पाया कि यहाँ क्‍या हो रहा है। एक भाषाविद् का जोश मुझमें हिलोरें लेने लगा। मैंने अंग्रेजी और फ्रेंच शब्‍दों की तुलना करने की कोशिश की उनके बीच की समानताएं एवम् विभिन्‍नताएं देखने के लिये।
       फ्रेंच                                अंग्रेजी
       Economic                         Economy
       Medecine                          Medicine
       Novembre                         November
       Statistique                         Statistics
       Produits                           Products
       Linguistique                       Linguistics   
       Syntaxiques                       Syntactics
       Lettres                            Letters
       Familiale                          Family
       Spendeurs                         Splendour
       Mondes                                  Months
       Musique                           Music
       Generales                         General
फ्राँस से मैं आगे गया
इंग्‍लैण्‍ड – यह एक बड़ी प्रदर्शनी है; अलग अलग तरह का ज्ञान लोगों को दिखाया जा रहा था। ब्रिटिश कौंसिल और अन्‍य कई प्रकाशक इसका संचालन कर रहे थे। मैंने एक किताब उठाई, फिर दूसरी उठाई। मेरे पास पैसे नहीं थे, मगर फिर भी मैं उनमें से कुछ हासिल करना चाहता था। और बेशक मुझे वो मिल ही गई। नीचे देखोः
१.       ‘‘मुझे तुमसे प्‍यार न करने दो, अगर मैं तुमसे प्‍यार नहीं करता तो (हरबर्ट)’’। यह समझाया गया है कि यहाँ सन्दिग्‍धता है, ‘‘पुनरूक्ति’’ के कारण। मुझे यह पता नहीं चला कि “पुनरुक्ति” शब्‍द का क्‍या मतलब हैं। मैंने इसे ‘‘उपयोग तथा दुरूपयोग’’ (एरिक पार्टरिज द्वारा लिखित) नामक पुस्‍तक से लिया
२.       ‘‘मैं अकेला रह गया, दृश्‍य दुनिया को खोजते हुए, न जानते हुए, क्‍यों।’’
मेरे स्‍नेह के स्‍तंभ हटा दिये गये मगर फिर भी इमारत खड़ी थी, जैसे संभल गई हो, अपनी ही शक्ति से।
(प्रस्‍तावना, II, 292-6: वर्डस्‍वर्थ की काल्‍पनिक कविताऍ)
३.       ‘‘...प्‍यार करता हूँ तुमसे?
बेशक, मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ।
इसीलिये मुझे जाना होगा,
इससे पहले कि तुम जानो, कितना’’
(१२वीं घरेलू आपदाः लिन्‍डा गुडमैन की प्रेम कविताएं)
४.       ‘‘हर इंसान, मैं तुम्‍हारे साथ जाऊँगा,
और तुम्‍हारा मार्गदर्शक बनूँगा
तुम्‍हारी सबसे जरूरत की घड़ी में
तुम्‍हारे साथ रहूँगा।’’
(कोलरिज की कविताएं)
और कुछ रोमांटिक शीर्षक भी देखे, जो दिलचस्‍प थेः
१.       पीडित प्‍यार
२.       प्‍यार करने वाला गुलाम
३.       प्‍यार कोमलता से बोलता है
४.       अधिकृत लड़की
५.       सुन्‍दर पुरूष का कभी विश्‍वास न करों
६.       एक छोटी सी मीठी घड़ी
७.       प्‍यारा दुश्‍मन
८.       अधिकार से बाहर
इतना ऊब गया हूँ दुनियादारी की बातों से। मैं धार्मिक स्‍टाल्‍स पर गया, जो बड़ी संख्‍या में थे। मैं बहुत देरी से नहीं लौट सकता था। इसलिये मैंने सिर्फ भगवान श्री रजनीश का स्‍टाल देखने का निश्‍चय किया – जो काफी विवादित धार्मिक नेता हैं। वे मेरे पसन्‍दीदा भारतीय गुरूओं में से एक हैं। उनकी लिखी हुई एक हजा़र पुस्‍तकें प्रदर्शित की गई थीं। हर शीर्षक एक आत्‍मीय झलक देता है। ये कुछ शीर्षकः
१.       न पानी, न चाँद
२.       खाली नौका
३.       सूरज शाम को उगता है
४.       जो है, सो है; जो नहीं है, सो नहीं है
५.       रेत की विद्वत्‍ता
६.       बस यूँ ही
७.       अपने रास्‍ते से दूर हटो
८.       बिना पैरों के चलो, बिना पंखों के उड़ो, और बिना दिमाग के सोचो
९.       एक पागल आदमी का पथ प्रदर्शक ज्ञान की दिशा में
१०.   घास स्‍वयं ही उगती है
रूको ... और मनन करो, और तुम्‍हें उनमें से कुछ प्राप्‍त होगा, मेरा यकीन करो।
इसके बाद मैं फिर थाईलैण्‍ड गया एम०एल० मानिच वहाँ नहीं थे। मैं उनका और इंतजार नहीं कर सकता था। मैंने श्रीलंका-स्‍टॉल की एक लड़की के पास संदेश छोडा़ और एक किताब ली (फ्या अनुमन राजाधोन की याद में)। जिसकी इजाजत मैंने कल ही ले ली थी। मुफत में! उन्‍हें धन्‍यवाद।
मैं गलत गेट से बाहर निकला। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मुझे बस कहाँ से मिलेगी। मैंने सोलह साल के एक लड़के से, जो अनपढ़ लग रहा था, हिन्‍दी में पूछा।
‘‘आई०टी०ओ० कहाँ है, भाई?’’
‘‘मालूम नहीं, उसने जवाब दिया।
मैं इधर उधर घूम रहा था यह सोचते हुए कि कहाँ जाना चाहिए। एक ठीक-ठाक आदमी मेरी तरफ आया तो मैंने उससे पूछाः

‘‘क्‍या आप मुझे आई०टी०ओ० का रास्‍ता बनाएँगे, प्‍लीज?’
आप इस तरफ से सीधे निकल जाईये,’ उसने इशारे से बताया।
मैं उसके बताए रास्‍ते पर चल पडा़। मेरे सिर के ऊपर चाँद मुस्‍करा रहा है। जब मैं चल रहा था, तो वह मेरे साथ साथ चल रहा था। जब मैं रूका तो वह भी रूक गया।
मैंने उसकी तरफ सिर उठाकर देखा, उसने सिर झुकाकर मुझे देखा। कभी कभी वह
बादलों के पीछे छिप जाता मुझे अकेला, अंधेरे में, छोड़ कर।
ओह, मेरे प्‍यारे चाँद, मैं बुदबुदाया, मैं चाँद की रोशनी के आगोश में चलता रहा जब तक मैं आई०टी०ओ० बस-स्‍टॉप पर न पहुँच गया। वहाँ मैंने नग्‍न चन्‍द्रमा से बिदा ली।
यह थी मेरी आज की खोज, डार्लिग! चाहो तो मेरे अनुभव को बाँट लो, न चाहो तो ना सही। सब कुछ तुम पर निर्भर करता है। और अब मैं थक गया हूँ। तुम जब मेरे पास फिर से आओगी, तब तुमसे मिलूँगा!










मैं अपना प्यार for Kindle

  अपना प्यार मैं दिल्ली में छोड़ आया   एक थाई नौजवान की ३० दिन की डायरी जो विदेश में बुरी तरह प्‍यार में पागल था                ...