रविवार, 27 मई 2018

मैं अपना प्यार - 31




*Odi et amo; quare id faciam, fortasse requires. Nescio, sed fierisentio et excrucios (Latin): मैं नफरत करता हूँ और मैं प्‍यार करता हूँ। तुम जानना चाहोगी क्‍यों। मुझे मालूम नहीं – मगर मैं ऐसा ही महसूस करता हूँ और यह जहन्‍नुम है – केटुल्‍लुस C 84 – 54 BC
इकतीसवाँ दिन
फरवरी १०,१९८२

सबसे पहले मैं इन्‍दौर के डा० लल्लू सिंग की तारीफ करना चाहता हूँ उनके कठोर परिश्रम के लिये और उन्‍हें उनकी लाजवाब सफलता पर बधाई देता हूँ। नीचे दी गई खबर पढो़ तो तुम्‍हें पता चल जायेगा कि उन्‍हे कैसी सफलता मिली है।
(स्‍टेट्समन, फरवरी १०,१९८२)
भारतीय वैज्ञानिक ने फेर्माट के अंतिम प्रमेय को हल कर दिया
इन्‍दौर, फरवरी १ – गणितज्ञ डा० लल्‍लू सिंग को ४५ वर्ष लगे ‘‘फेर्माट की अंतिम प्रमेय’’ का हल ढूँढने में, यू एन आई की रिपोर्ट।
जब से डा० सिंग ने ब्रिटानिका विश्‍वकोष में सन् १९३५ में उस सुप्रसिद्ध प्रमेय के बारे में पढा़, जिसका प्रतिपादन फ्रेंच गणितज्ञ पीयरे दे फेर्माट ने सन् १६३७ में किया था, वे प्रतिदिन तीन घंटे उसका हल ढॅूढने में लगाते रहे, यह जानकारी उन्‍होंने दी।
‘‘फेर्माट का अंतिम प्रमेय एक संक्षिप्त कथन है धनांकित या ऋणांकित पूर्णांकों के बारे में, जिसे गणितज्ञ इंटेजर्स (पूर्ण संख्‍या) कहते हैं।
प्रमेय के अनुसारः ऐसी कोई पूर्ण संख्‍या X, Y और Z अस्तित्‍व में नहीं है, और इसके O होने की संभावना भी, जो संबंध (X)N + (Y)N = (Z)N को संतुष्‍ट करती हे (N परिवर्तनीय पूर्णांको X, Y तथा Z की घात है)
तीन शताब्दियों से अधिक समय से यूरोपिय एवम् अमेरिकन गणितज्ञ अपने दिमागों पर जोर डालते रहे है। पीयरे दे फेर्माट के प्रमेय पर (1601-1655)।
मगर डा० सिंग के अनुसार, उनमें से कोई भी इस प्रमेय का सम्‍पूर्ण हल प्रस्‍तुत करने में सफल नहीं हुआ।
प्रमेय को उसके प्रतिपादक, फेर्माट, भी हल नहीं कर पाये, डा० सिंग ने बताया। फेर्माट अपनी अंतिम प्रमेय के हल को ढूँढने में २८ वर्षो तक लगे रहे।
फेर्माट के प्रमेय के हल से संषंधित डा० सिंग का शोध-प्रपत्र पहले इंडियन एकाडमी ऑफ मेथेमेटिक्‍स की पत्रिका में, इन्‍दौर में सन १९८० में प्रकाशित हुआ। सिर्फ आठ पृष्‍ठों में। इसमें प्रमेय से संबंधित सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।
आम लोगों के लिये और गणित के विद्यार्थियों के लिये, या विशेषकर गणितज्ञों के लिये यह बड़ी अच्‍छी खबर है। हम उनका अभिनन्‍दन करें!
मेरी जिन्‍दगी आज कम उत्‍पादक एवम् कम सक्रिय रही आत्‍म-विश्‍वास की कमी के कारण। मैं पूरे दिन होस्‍टेल से बाहर नहीं निकला। खुद लाइब्रेरी जाने के बदले मैंने सोम्‍मार्ट से कहा कि मेरी पुस्‍तक लौटा दे। सुबह में कुछ देर पढ़ता रहा, मगर ध्‍यान नहीं लग रहा था, और पढ़ने का कोई फायदा नहीं हुआ। पढा़ई की किताबें पढ़ने के बदले मैं रेडियो एवम् कुछ पुरानी पत्रिकाओं की ओर मुडा (कॉम्‍पीटीशन सक्‍सेस, कॉम्‍पीटीशन मास्‍टर, करियर इवेन्‍ट इतयादि)। मुझे तुम्‍हारा खत पाने की उम्‍मीद थी, मगर वह पूरी न हुई। शायद अगले कुछ दिनों में मिल जाये। अखबार वाला अखबार के पैसे माँगने आया था। मेरा हाथ बहुत तंग है इसलिये मुझे यह काम स्‍थगित करना पडा़।
‘‘कल, फिर आना, प्‍लीज’’! सच कहूँ तो मुझे कठिन समय के लिये पैसे बचाने हैं। और यह पैसा मुझे कल प्राचक ने दिया था। उसने मुझसे पूछा,
‘‘तुम्‍हारे पास पैसे-वैसे तो हैं ना?’’
उसने मेरे जवाब का इंतजार भी नहीं किया और पैसे निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिये, जैसे उसे मेरी स्थिति का पता हो। मैंने बडी कृतज्ञता की भावना से उससे पैसे लिये। उस जैसा आदमी आज की गला-काट प्रतियोगिता की दुनिया में आसानी से नहीं मिलता। ये, बेशक, पहली बार नहीं है जब उसने मेरे प्रति विश्‍वास और दयालुपन दिखाया था। ऐसे कई मौके आए जब मुझे मदद की जरूरत थी, वह मौके पर पहुँच कर मेरी मदद करता रहा। मैं उसके सामने सिर झुकाकर बार बार उसे ‘‘धन्‍यवाद’’ कहूँगा।
लंच से पहले सोम्रांग मुझे एक लाइब्रेरी कार्ड देने आया। वह थका हुआ लग रहा था और थोड़ी-सी नींद लेना चाहता था। उसने मुझसे कहा कि लंच-टाइम पर उसे जगा दूँ। मगर, हुआ ऐसा कि उसीने मुझे उठाया। कितना मजा आया!
दोपहर को दो मित्र मेरे पास आये (थाई और लाओ)। वे बस आए और उसी दिन मेरठ वापस चले गए। शाम को मुझे भूख लगी। मैंने आठ रू० में ऑम्‍लेट और चाय ली। कैन्‍टीन में एक भारतीय लड़का मुझे देखकर हँस रहा था क्‍योंकि मैंने उल्‍टी हैट पहन रखी थी। मुझे अच्‍छा लगा कि मैं देखने में मजाकिया लगता हूँ।
दूसरों को खुशी देना हरेक का कर्त्‍तव्‍य है, ऐसा मेरा विश्‍वास है। फिर मैं सोम्रांग के कमरे में गया। वह शेविंग मशीन सुधार रहा था। मैंने उसके काम में खलल नहीं डाला बल्कि मैं कुछ और करता रहा (पढ़ता रहा)। माम्नियेंग उसके पास टाइपराइटर माँगने आया। उसने मुझसे पूछा कि वह एम०एल० मानिच जुम्साई से कहाँ मिल सकता है। मैंने कहा कि शायद एम०एल० मानिच जुम्‍साई थाईलैण्‍ड वापस चले गए हों। मगर फिर भी मैंने उसे सलाह दी कि विक्रम होटल में फोन करक, जहाँ एम०एल० मानिच रूके थे, पूछ ले कि वे अभी भी वहाँ हैं या नहीं। मैं उसे समझा नहीं पाया कि क्‍या एम०एल० मानिच जुम्‍साई अभी तक दिल्‍ली में हैं।
डिनर के बाद, आज रात को, बिजली आती रही, जाती रही, 10.30 बजे तक। फिर ठीक हो गई।
आज मेरी एक महीने की डायरी का अंतिम दिन है, जिस पर तुम्‍हारे जाने के बाद मैंने ध्‍यान केन्द्रित किया था। उध्‍देश्‍य यह था कि अपने अंग्रेजी ज्ञान का अभ्‍यास करुँ, जिसके बारे में, मैं स्‍वीकार करता हूँ कि मैं संतुष्‍ट नहीं हूँ। दूसरी बात यह कि मैं तुम्‍हारी अनुपस्थिति में, तुम्‍हारे लिये भारत में, खासकर दिल्‍ली में घटित घटनाओं को दर्ज कर सकूं। और अंतिम कारण यह कि मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे दिल की गहराई में जाकर मेरी उन भावनाओं को समझो जो तुम्‍हारे मुझ से दूर रहने पर दिल में रहती हैं। ओह, कितनी पीडा़ से गुजरा हूँ मैं!
अगर वाकई में तुम मेरी खुशी और गम को बाँटना चाहती हो, तुम मेरी डायरी से मेरे साथ बाँट सकती हो। जो भी मेरे मन में था, सब मैंने उँडेल दिया चाहे तुम्‍हें पसन्‍द आए या न आए। मेरी डायरी के दो पहलू तुम देखोगीः अच्‍छा और बुरा। अब यह तुम पर है कि तुम किसे चुनती हो। जो तुम्हें पसन्‍द न हो उसे स्‍वीकार करने का हठ मैं नहीं करुँगा। एक इन्‍सान होने के नाते तुम्‍हें पूरी आजादी और सम्‍मान प्राप्‍त है। मुझे इस बात पर गर्व है कि मैंने जिन्‍दगी में ‘‘कुछ’’ तो किया, खास तौर से उसके लिये जिसके लिये कोमल एवम् स्‍नेहपूर्ण भावनाएं मेरे मन में हैं। समय ही पुरस्‍कार निश्चित करेगा। मुझे तो उम्‍मीद नहीं।

कल, जो कुछ भी मैंने इस एक महीने की डायरी में लिखा है उसका समापन करुँगा। यह एक पर्दा होगा, जो पिछले तीस दिनों की जिन्‍दगी को ढाँक देगा। गुड नाइट, गुड बाय। तुमसे फिर मिलने तक।
जैसा कि मैंने वादा किया था, उसे पूरा कर रहा हूँ। जो कुछ भी मैंने पिछले ३० दिनों की डायरी में लिखा है उसे सिर्फ एक वाक्‍य में समाप्‍त किया जा सकता हैः मैं तुमसे प्‍यार करता हूँ।
मैं अपनी डायरी इस कविता से पूरी करता हूँ -  
कोई हमें एक दूजे से न करेगा जुदा,
जीवन में और मृत्‍यु में
एक दूसरे के लिये सब कुछ
मैं तुम्‍हारे लिये, तुम मेरे लिये!
तुम वृक्ष और मैं फूल
तुम प्रतिमा; मैं जमघट
तुम दिन; मैं समय
तुम गायक; मैं गान!
(सर विलियम श्‍वेन्‍स्‍क गिलबर्ट)
मेरी संवेदना की पागल धाराएँ जहाँ खत्‍म होती हैं और जीवन की वास्‍तविकताएँ नये क्षितिज पर आरंभ होती हैं। दुनिया चलती रहती है, जिन्‍दगी गुजरती रहती है... तुम्‍हारे बिना सदा...मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ, ‘‘अगर तुम मुझ से प्‍यार करती हो, तो मेरे किसी और का होने पर दुखी न होना।’’


Amans, amens! Lover, Lunatic
तथास्तु! प्रेमी, पागल! - प्‍लॉटस C 250-184 BC


मुझे अभी भी तुम्‍हारी याद आती है, प्रिये!


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