सोमवार, 21 मई 2018

मैं अपना प्यार - 02




*Homo totiens moritur quotiens amittil suos (Latin): जब तुम अपने प्रिय व्‍यक्ति को खो देते हो, तो तुम्‍हारा कुछ हिस्‍सा मर जाता है – प्‍यूबिलियस साइरस (fl.1st Century BC)
दूसरा दिन
जनवरी १२,१९८२

आज पहला दिन है तुम्‍हारे बगैर इस तेजी से बदलती जिन्‍दगी की वास्‍तविकताओं का सामना करने का। ये न तो अन्‍त का आरंभ है और न ही आरंभ का अन्‍त। ये बिल्‍कुल विपरीत है – आरंभ का आरंभ। हमारी जिन्‍दगियों के क्षितिज आगे चलकर हमें एक दूसरे के निकट ले आएंगे, उम्‍मीद करता हूँ।
सुबह मैं देर से उठा, रात भर डरावने सपने देखने से सिर भारी था। मेस में नाश्‍ते के लिये कुछ नहीं बचा था क्‍योंकि मैं खूब देरी से उठा था। मैंने होस्‍टल में महीने की फीस के १९९ रू० भर दिये, और इसके बाद ‍सेन्‍ट्रल लाइब्रेरी की ओर चल पड़ा अपनी अच्‍छी दोस्‍त किरण को किताब लौटाने, जिसकी ड्यू-डेट कब की निकल चुकी थी। कोई फ़ाईन नहीं लगा। बड़ी मेहेरबानी की उसने! मैंने उससे बाय! कहा कृतज्ञता की गहरी भावना से, फिर मैं लाइब्रेरी साइन्‍स डिपार्टमेन्‍ट गया।
वहाँ, संयोगवश, लिंग्‍विस्‍टिक्‍स की पुरानी सह-छात्रा से मिला जो आजकल अच्‍छी नौकरी की संभावना के लिये लाइब्रेरी साइन्‍स के कुछ कोर्स कर रही है। वह बड़े अच्‍छे स्‍वभाव की है, उसने एक पल रूककर मुझसे बात की। मैं मि० बासित का इंतजार कर रहा था। अपनी क्‍लास खत्‍म करने के बाद वे अपने कमरे में आए। मैंने दरवाजा खटखटाया और अन्‍दर आने की इजाज़त मांगी।
उन्‍होंने मुस्‍कुरा कर मुझसे बैठनेके लिए कहा। मैंने उन्‍हें अपने आने का मकसद बताया और तुम्‍हारा पत्र तथा तुम्‍हारी थीसिस का तीसरा चैप्‍टर दे दिया। उन्‍होंने पत्र पर नज़र दौड़ाई और मुझसे मेरा पता पूछा जिससे वह मुझसे संपर्क कर सकें। थोड़ी सी भूख लगी थी, मैंने एक कप कॉफी पी स्‍नैक्‍स के साथ यूनिवर्सिटी कैन्‍टीन में।
पी०जी० मेन्‍स होस्‍टल में वापस लौटते हुए मैं जुबिली एकस्‍टेन्‍शन हॉल में गया यह देखने के लिये कि आराम वहाँ है या नहीं। वह बाहर गया था, मुझसे किसी ने कहा कि वह आज ही शाम को भिक्षु-जीवन छोड़ रहा है। किसी महिला की आवाज़ सुनकर मैं खयालों से बाहर आया – ये शुक्ला थी, मेरी कनिष्‍ठ-छात्रा लिंग्‍विस्‍टिक्‍स की – हम कुछ देर बातें करते रहें। शाम को वुथिपोंग मातमी चेहरा लिये मेरे कमरे में आया। उसने अपने एक-तरफ़ा प्‍यार के बारे में दिल खोल कर रख दिया। मुझे उसके बारे में बहुत दुख हो रहा था, मैंने उसे कुछ सुझाव दिये मगर उसे वे ठीक नहीं लगे। इसलिए मैंने अपनी ओर से उसका हौसला बढ़ाने की पूरी कोशिश की, और वह संतुष्‍ट होकर मेरे कमरे से गया। उसे एक बार फिर दुनिया जीने के लायक लगने लगी; मैं खुश था कि मैं उसके कुछ तो काम आ सका।
जहाँ तक मेरा सवाल है, मैं अभी भी अनिश्चितता की दुनिया में हूँ। मेरी जिन्‍दगी का रास्‍ता कई सारे संयोगों और परिस्थि‍तियों पर निर्भर करता है। जिन्‍दगी ऐसी ही होती है! इन्‍सान को हर क्षण सम्‍पूर्णता से जीना चाहिए। क्‍या सभी इस तथ्‍य को जानते और स्‍वीकार करते है?







कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मैं अपना प्यार for Kindle

  अपना प्यार मैं दिल्ली में छोड़ आया   एक थाई नौजवान की ३० दिन की डायरी जो विदेश में बुरी तरह प्‍यार में पागल था                ...